SAJAG PRAHARI AWAKENING

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आत्मा का परम भाव ही परमात्मा है

Our Mission is to Empower the Society through our spiritual awakening programs and solutions, based on ancient vedic knowledge and intense spiritual practices. We help you to stay away from negativity, wrong knowledge & belief system, and keep you spiritually awakened and blissed with healthy reading and learning. Regards, Alok Pandey Bharat

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SPIRITUAL READING

शिवलिंग है शिव शक्ति का प्रतीक

वेदों और पौराणिक कथाओं के अनुसार परमात्मा ने अपना प्रथम परिचय ब्रह्मा को अर्धनारीश्वर के रूप में दिया है, यह रूप शिव और शक्ति का कहा जाता है, अर्थात शिव और शक्ति की प्रेरणा से या कहें पवित्र संयोग से ही इस सम्पूर्ण सृष्टि का अस्तित्व है।  भगवान शिव को रुद्र भी कहा गया है, पृथ्वी पर जहाँ जहाँ भी रुद्रावतार स्थान अर्थात मंदिर हैं, हर जगह माँ शक्ति भी उपस्थित हैं, शिव और शक्ति की उपासना साथ होती है। 

परम ऊर्जा का प्रतीक है महादेव का "शिव शक्ति" रूप, उन्होंने पौरुष सत्ता के साथ ही नारी सत्ता को भी उतना ही महत्त्व दिया है, सृष्टि के आरम्भ में ही,अपने अर्धनारीश्वर रूप से बताया है कि बिना शक्ति के शिव अधूरे हैं, और बिना शिव, शक्ति। 

ब्रह्मांड का अस्तिव शिव-शक्ति रूप से ही संभव है, और शिवलिंग इसी शिव शक्ति रूप को प्रदर्शित करता है, ब्रह्मांड या कहें सम्पूर्ण सृष्टि की सत्ता और ऊर्जा को प्रदर्शित करता है, उत्पत्ति भी बताता है और विलय भी। आज हम नारी की बराबरी की बात करते हैं, लेकिन यह पूज्य प्रतीक बताता है कि महादेव शिव के अनुसार नारी शक्ति के बिना तो सृष्टि का अस्तित्व ही नहीं, अतः नारी सदैव पूज्य है। 

शिव की आराधना शक्ति के बिना नहीं हो सकती, यही शिवलिंग का सृष्टि को संदेश है।


ॐ एक आत्मिक अनुभूति

ॐ, यह एकाक्षरी मंत्र लगता है जैसे सारी सृष्टि या कहें ब्रह्मांड से परिचय कराता है:

अ, उ और म यानि अकार (ब्रह्मा) उकार (विष्णु) और मकार (शिव) प्रतीकों से सुसज्जित यह ईश्वरीय मंत्र, आदि, मध्य और मौन (अंत या कहें अनंत) को परिभाषित करता है, ॐ के उच्चारण में अ का उच्चारण हृदय देश से, अर्थात उत्पत्ति या कहें ब्रह्मा को दर्शाता है, उ का उच्चारण तालू से अर्थात मध्य अर्थात पालनहार भगवान विष्णु को प्रकट करता है, म का उच्चारण होठों को बंद करके होता है, गुंजायमान नाद (स्वर), इसके बाद हलंत और उसके पार सूक्ष्म बिंदु मौन की ओर ले जाता है,अर्थात भगवान महादेव शिव की अनंतता का परिचय और अनुभूति देता है। 

यह पवित्र एकाक्षरी मंत्र सम्पूर्ण ब्रह्मांड अर्थात दैवीय सत्ता का परिचय देता है, अगर ध्यान दें तो पायेंगे कि सारी प्रकृति, आपके आस पास मौजूद हर वस्तु ॐ का जाप कर रही है, हर ध्वनि में यह ध्वनि सुनाई देती है!! परमात्मा का परिचायक है ॐ

शाश्वत अनंत सनातन को पहचाने

छुआछूत, अस्पृश्यता एक मात्र कारण रहा है, सनातन धर्म के विघटन और वैश्विक बर्बादी का। वैश्विक बर्बादी इसलिये, कि हर संप्रदाय जिसे आप "धर्म" कहते हो, जातियां उपजातियाँ सभी सनातन धर्म से ही उत्पन्न हुये हैं, युगों युगों से चली आ रही, मानसिक अस्पृश्यता की वजह से, जिन्हें लगा कि वो कमज़ोर हैं, रेस में टिके रहने और अपने को दूसरे को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ में अपने से श्रेष्ठ को नुकसान पहुँचाने, अपनी पैदावार बढ़ाने, और वैश्विक बर्बादी का कारण बनने के प्रयास में लग गये, एवं परमात्मा द्वारा प्रदत्त 'शाश्वत सनातन; जो ब्रह्माण्ड का एकमात्र "धर्म" है, क्षीण होता चला गया, और आज आसुरी शक्तियों के बाहुल्य में अंतिम सांसे ले रहा है। लेकिन जब जब धर्म की बड़ी हानि हुई है, अवतार हुये हैं, और शायद फिर कुछ ऐसा ही हो। धर्म स्थापना के प्रयास में यह तो निरंतर अनवरत चलने वाला युद्ध है, जिसे देवासुर संग्राम के नाम से जानते हैं, सदा होता रहा है,और सदा होता रहेगा। 

हम सभी अपनी प्रवत्तियों को स्वयं ही आत्मसाक्षात्कार से जान सकते हैं, ये दैवीय हैं, या आसुरी, परीक्षण करें, फिर जारी करें जंग। 

आप खुद में बैठी आसुरी शक्तियों से भी लड़ते हैं, और लोक कल्याण में दूसरों की आसुरी शक्तियों से भी, यही युद्ध है।

मोक्ष जीवित रहते ही प्राप्त हो सकता है

आत्मा का परम भाव ही परमात्मा है, अर्थात् आप शरीर नहीं, आत्मा हैं, परमत्व प्राप्त करने के लिये आवश्यकता है, आत्म साक्षात्कार की। शरीर सोता है, लेकिन आत्मा सदैव जागती है, ह्रदय को स्पंदन देती है, शरीर को कार्य करने की ऊर्जा देती है, अपनी बुद्धि (जो ब्रह्मा का ही स्वरूप है), इसकी  शुद्धि के द्वारा आत्म साक्षात्कार और परमात्म भाव की प्राप्ति संभव है, यही जीवन का लक्ष्य भी है। 

हठ योग का मार्ग सर्वोत्तम है आत्मदर्शन के लिये, हठ योग कुछ और नहीं, अपनी समस्त इन्द्रियों को अनुशासित रख कर लोक कल्याण हेतु "नियत कर्म" के मार्ग पर आगे बढ़ना है, एक बार हठ योग प्रारंभ हो गया, भले प्रारंभिक अल्प संकल्प एवम् प्रयास के साथ ही सही, बार बार गिरने, संभलने के बाद भी,'आत्मा', "परमात्मा" में विलीन हो ही जायेगी, क्योंकि एक बार प्रारंभ होने पर यह संकल्प और प्रक्रिया मिट नहीं सकती, आगे बढ़ते हुये, इस जन्म में ही, या फिर अनेक जन्म जन्मांतरों के बाद, इस लक्ष्य की प्राप्ति अपरिहार्य है, यही मोक्ष है।

मन और आप

मन के मुख्यतः तीन भाग होते हैं और इसे कंप्यूटर की मेमोरी के टर्म्स में भी समझा जा सकता है:

1. सचेतन ( रैम)

2. अर्ध चेतन (कैश मेमोरी)

3. अवचेतन (हार्ड डिस्क)


अवचेतन मन एक डेटा कलेक्शन सेंटर की तरह है, जैसे कंप्यूटर की हार्ड डिस्क, यहाँ डेटा क्रमशः सचेतन मन से अर्धचेतन मन और फिर अवचेतन में जा के स्टोर हो जाता है, किसी भी काम को बार बार किया जाये, वह हमारी आदत बन जाती है, और हर आदत अवचेतन में स्टोर हो जाती है, अर्ध चेतन मन कंप्यूटर की कैश मेमोरी की तरह है, जिसमें अवचेतन मन से बार बार यूज़ होने वाला डेटा अर्धचेतन से होता हुआ सचेतन की ओर ट्रेवल करता रहता है, और फास्टर प्रोसेसिंग के लिये स्टोर रहता है, जिस पर दिमाग एक प्रोसेसर की तरह कार्य करता है, सचेतन मन कंप्यूटर की रैम की तरह है, जिसपे बुद्धि या कहें दिमाग द्वारा प्रोसेसिंग होती है।

इसका अर्थ यह, कि हमारा मन बुद्धि का पूरा सिस्टम डेटा अर्थात मेमोरी पे कार्य करता है, गौर कर के देखें, तो पायेंगे, कि मन सदा वहीँ जाता है, जो कुछ आपने अपने जीवन में देखा, सुना, महसूस किया होता है, मन की यही तय सीमायें हैं, अर्थात मन एक मेमोरी के अलावा और कुछ नहीं, यही मेमोरी हमारे पूरे व्यक्तित्व और जीवन का निर्धारण करती है। 

अतः मन पर नियंत्रण के लिये परम आवश्यक है कि जीवन को बहुत ही ध्यान पूर्वक जिया जाये, डेटा कलेक्शन की क़्वालिटी पर विशेष ध्यान अर्थात, क्या देख सुन बोल देख रहे हैं, खा रहे हैं, विशेष ध्यान रखा जाये, क्योंकि यही डेटा हमारे जीवन की दिशा और दशा निर्धारित करता है। अतः अपने मन को ध्यान पूर्वक सही खुराक (डेटा) दें, और कुछ ही दिनों में फर्क देखें।

धर्म

समाज ने संप्रदायों को धर्म का नाम दे दिया है, जितने संप्रदाय उतने ही धर्म, धर्म किसी संप्रदाय विशेष का मोहताज़ नहीं, बल्कि परमात्मा अर्थात अपनी ही आत्मा के परम स्वरूप "परम आत्मा" को प्राप्त करने का मार्ग या कहें आचरण मात्र है, और कुछ नहीं। धर्म के नाम पर जो भी विसंगतियाँ समाज में व्याप्त हैं उसका एक ही कारण है, ज्ञान का अभाव!! अतः परम भाव में स्थिति सद्गुरु की शरण सदा ही कल्याणकारी है, धर्म अनेक नहीं, एक ही होता है, वह मार्ग जो आपको परमात्मा का साक्षात्कार करा दे, धर्म वह है जो परमात्मा की बनाई प्रकृति, मानवता और लोक कल्याण के उत्थान के लिये हो न की किसी को कष्ट देने के लिये, जिन्हें हम धर्म कहते हैं, असल में वे संप्रदाय हैं, हिंदू, मुस्लिम, सिख ईसाई, पारसी, धर्म नहीं संप्रदाय हैं, कुरीतियाँ कहीं भी हो सकती हैं, अगर हम जानवरों की क़ुर्बानी का विरोध करते हैं, तो बलि प्रथा का भी होना चाहिये, बाल विवाह गलत है, देवदासी, सती प्रथा ग़लत थी, उसी प्रकार तीन तलाक़ कुप्रथा का अंत भी आवश्यक था, इसमें किसी तर्क की गुंजाईश कहाँ,

रही बात उस एक धर्म की, तो वह शाश्वत सनातन अर्थात अनादि, जो न कभी पैदा हुआ, न मर सकता है, जिसे हम सनातन धर्म के नाम से ही जानते हैं, लेकिन आज के युग में पालन विरले ही करते हैं धर्म कभी कट्टरता, घमंड नहीं सिखा सकता, एक बार हम अपने चारों ओर पृकृति पर ही नज़र दौड़ा कर देख लें, हवा, पानी, सूर्य सब अपने अपने धर्म का पालन कर रहे हैं, बिना किसी भेदभाव के, हिंदू को धूप कम मुस्लिम को ज्यादा, ऐसा नहीं है, क्या कोई नवजात शिशु को देख कर उसका संप्रदाय (धर्म कहने की भूल नहीं करनी चाहिये) बता सकता है ? मानव ही है, जो अज्ञानता के भंवर में अकड़ से साथ उलझा हुआ है, बाहर निकलने को तैयार ही नहीं
शिक्षा व्यवस्था

विचार कीजिये, कि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में हम अपने बच्चों और आने वाली पीढ़ियों को क्या दे रहे हैं, हर व्यक्तित्व खुद में अलग होता है, उज्वल भविष्य की नई और अपार सम्भावनायें लिये, हम कौन होते हैं उसका भविष्य खुद के ढर्रे पे चलाकर निर्धारित करने वाले, परमात्मा उसे कुछ बनने के लिये भेजता है, और हम उसे अपने जैसा ही बना देते हैं, किसी नवीन रचना को जन्म लेने से पहले ही दबा देते हैं। गौर कीजिये, जितने भी सफल वैज्ञानिक, लीडर्स, महापुरुष हुये हैं, वो अपने दिल की आवाज़ पर चले हैं, लाख विरोधों, आलोचनाओं के बावज़ूद हज़ारों असफलताओं के बावज़ूद फिर खड़े हो कर लक्ष्य की ओर निरंतर बढे हैं और सफ़ल हुये हैं, इतिहास का हिस्सा बने हैं!!

हमें तय करना होगा, कि हम खुद को और अपनी भावी पीढ़ी को कुछ लोगों द्वारा तय की गई फैक्टरी से निकला आठ से 12 घंटे की नौकरी कर रिटायरमेन्ट ले कर अंत में चार कंधों पर जाने वाला एक प्रोडक्ट बनाना चाहते हैं, या वो जो हम या वो बनना चाहता है, बनाना चाहते हैं!!

हमारा कार्य है, उनकी रूचि और क्षमता को पहचान कर, उन्हें उनके लक्ष्य में सफ़ल होने के लिये सदा प्रेरित करना, अपना सर्वस्व लगा देना, न कि गुलाब के पेड़ को आम का पेड़ बनाने की कोशिश करना

अभी भी देर नहीं हुई है, जब जागें, तभी सवेरा, हो सकता है, आपका नौनिहाल, इंतज़ार में हो, कि मेरे माता पिता कभी तो मेरे दिल की आवाज़ सुनेंगे. यह दिन आज का भी हो सकता है, देखें, हो सकता है, आपके बच्चे में भी शायद कोई आइंस्टीन, तेंदुलकर या धीरू भाई अंबानी छिपा हो।।

गणपति
गणपति अर्थात समूची सृष्टि के भूतों के मालिक के रूप में हम, श्री गणेश अर्थात गणों के ईश्वर की पूजा करते हैं। अगर गूढ़ संदेश समझने की कोशिश करें, तो पायेंगे, कि एक आदर्श स्वामी जैसा होना चाहिए, उनके अंदर जैसा चरित्र, और क्षमताएं होनी चाहिए, वो सभी, गणों के आराध्य, श्री गणेश के स्वरूप में प्रदर्शित होती हैं, अपने स्वरूप से गणेश जी, अपने गणों, अर्थात, प्रत्येक जीव को भी यही चरित्र एवं क्षमताएं विकसित करने और अपनाने का संदेश देते हैं, आइए उनके स्वरूप के द्वारा प्रकट हो रहे गूढ़ संदेश को जानते हैं:
गणपति का विशाल मस्तक, गंभीरता, और बुद्धि की विराटता को प्रदर्शित करता है। विशाल सूप जैसे कान, संदेश देते हैं कि सुनने पर ज्यादा ध्यान दो, जो अर्थपूर्ण है, वही सार ग्रहण करो, बाकी अनर्गल कूड़ा अपने भीतर मत आने दो।
उनकी सूंड, क्रियाशीलता की पराकाष्ठा को दिखाती है, एक पेड़ हो, या सुई, दोनो को उठाने की क्षमता है इस अंग में, बड़े से बड़ा हो या छोटे से छोटा काम, सूंड करने में सक्षम है।
उनकी छोटी आंखें, परखने की शक्ति, एवं एकाग्रता को प्रदर्शित करती हैं।
चूहा नुकसान पहुंचाने वाला जीव है, यह नकारात्मक शक्ति का प्रतीक है, चूहे की सवारी, का अर्थ, नकारात्मक शक्ति पर नियंत्रण, और उसे पराजित करने से है।
उनके हाथों में अस्त्र, शस्त्र इत्यादि एवं अभयदान मुद्रा सामाजिक संचालन के लिए आवश्यक संतुलन अपनाने को प्रदर्शित करती है।
मोदक इत्यादि स्वादिष्ट भोग सामग्री, संसार में प्राप्त होने वाले विषय भोगों से है, गणेश जी के हाथ में मोदक का पात्र है, लेकिन वह स्वयं मोदक नहीं खा रहे, इसका तात्पर्य, जीव को, चैतन्य अवस्था में, इंद्रियों पर संयम रख कर, सांसारिक भोगों को जितना आवश्यक है, विरक्ति भाव से उतना ही ग्रहण करना चहिए।
उनका खंडित दांत, संदेश देता है, कि अगर आपके (जीव के) पास महान योग्यतायें हैं, तो कोई भी शारीरिक विकार या अक्षमता, आपके लिए बाधा नहीं बन सकते।
गणपति का बड़ा और फूला पेट, ब्रह्मांड को प्रदर्शित करता है, हर जीव के अंदर एक ब्रह्मांड विद्यमान है, करोड़ों, अरबों बैक्टीरिया, वायरस, हमारे शरीर के भीतर , बाहर पल रहे हैं, हमारी हर कोशिका, स्वयं में एक जीव है। जैसे गणपति, संपूर्ण भूतों (गणों) से युक्त, संपूर्ण सृष्टि को खुद में ब्रह्मांड के रूप में धारण किए हुए हैं, ईश्वरीय गुणों द्वारा, पालन कर रहे हैं, वैसे ही हर जीव को इन्हीं आदर्श गुणों से युक्त होकर, सृष्टि में रहना चाहिए, अर्थात, खुद के भीतर और बाहर विराजमान ब्रह्मांड का पूर्ण चैतन्य रूप से, पालन करना चाहिए, क्योंकि वह स्वयं भी ब्रह्म से विलग, उनका ही अंश है।
श्री गणेश, अपने प्रतीक (स्वरूप) के माध्यम से जीव को आदर्श जीवन जीने की कला समझाने और सिखाने का प्रयास कर रहे हैं, बस हमें इन गूढ़ संदेशों पर ध्यान देने की और उन पर स्वयं चलने और समाज को भी चलाने की जरूरत है, तभी गूढ़ संदेश प्रदर्शित करती हमारे आराध्यों की मूर्तियों, ग्रंथों, एवं इनके नाम पर होने वाले महोत्सवों इत्यादि की उपयोगिता सिद्ध होगी।
सृष्टि सिद्धांत

विज्ञान भी यह मानता है, कि सारी सृष्टि ऊर्जा का नृत्य मात्र है और कुछ नहीं, हमारे ऋषि मुनि, अपनी यौगिक दृष्टि से यह बहुत पहले जान चुके थे, अथाह ज्ञान के मकड़ जाल में उलझने के बजाय इंसान सिर्फ अगर इतना ही समझ ले, कि चराचर जगत की हर वस्तु (सजीव, निर्जीव), ऊर्जा से ही निर्मित है, और इस ऊर्जा का स्थानांतरण मात्र होता है, न ही ऊर्जा कम होती है, और न ही बढ़ती है, यह ऊर्जा तमो, रजो और सतोगुण से युक्त चैतन्य है, आपकी और आपके आस पास के लोगों की ऊर्जा जैसी होगी, वैसी ही वाइब्रेशन आपके आस पास, घर, मोहल्ले, समाज में उत्पन्न होती हैं, और वैसा ही प्रभाव आपके आसपास और संपूर्ण वातावरण में पड़ता है, अतः हमें सृष्टि के संचालन में अपनी भागीदारी को समझना चाहिये, ऊर्जा में तमोगुण की अधिकता अर्थात नकारात्मकता होगी, तो पाप बढ़ेगा, सतोगुण की अधिकता अर्थात सकरात्मकता होगी तो पुण्य, बहुत आसान है इसे समझना, हर कर्म और विचार, ऊर्जा उत्पन्न करता है, अतः सचेत रहें, सदा अपने विचारों, और कर्मों के प्रति, परिणाम से बच नहीं सकते, भगवान सब देख रहा है, इसका अर्थ यही है, कि आप उस ऊर्जा के भीतर ही हैं, उसका ही भाग हैं, आप की कोई भी करनी छिप नहीं सकती, अर्थात भला बुरा फल दे कर ही जायेगी, योनियों में भटकाव, स्वर्ग, नर्क, बीमारी, दुर्घटना, हर तरह का सुख, दुख, यह सब हम ही उत्पन्न कर रहे हैं, व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से, फिर दोष किसको देते हैं, बस इतना ही सरल सिद्धांत है सृष्टि के संचालन का, यही ऊर्जा, भगवान, या शैतान है, जैसा बना लो वैसा ही, आत्मबोध से ऊर्जा प्रबंधन में प्रवीणता आ सकती है, जिसे हम जीवन जीने की कला कहते हैं, यह आत्मबोध, योग, प्राणायाम, सद्गुरु के मार्गदर्शन से अभ्यास के द्वारा प्राप्त हो सकता है।

वर्ण व्यवस्था

अगर मैं कहूं कि 90% लोग वर्ण व्यवस्था का अर्थ नहीं समझते, तो शायद आप यकीन नहीं करेंगे, गीता में भी भगवान श्रींकृष्ण ने कहा है, कि मैंने जातियों को नहीं, गुण और कर्मों को बांटा है "गुण कर्म विभागशः", फिर यह जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था कब और किसने शुरू की, जाहिर है, इसी कल्पित वर्ण व्यवस्था की वजह से सैकड़ों सालों से हिंदू संप्रदाय में असम्मान, उपेक्षा झेल रहा विशाल जनमानस दूसरे संप्रदायों के निर्माण में और उनसे जुड़ने में लग गया, जहां उसे उपेक्षा नहीं, बराबरी का सम्मान मिले, देखते ही देखते असंख्य संप्रदाय खड़े हो गए, जिन्हें हमने धर्म का नाम दे दिया, सत्य यह है, कि ये जातियों होती ही नहीं, असुर, देव, यक्ष, नाग, किन्नर, गंधर्व, मानव, ये सब जातियों के प्रकार थे, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये नहीं, जो ब्रह्म को जानता है, वह ब्राह्मण है, इसी क्रम में नीचे की ओर योग्यता वालों को क्षत्रिय, वैश्य, और अत्यंत अल्प ज्ञान वाले को शूद्र की संज्ञा दी गई (संदर्भ भगवद गीता), असुर जाति का रावण ब्रह्म को जानता था, इसीलिए ब्राह्मण कहा गया, विश्वामित्र, जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था के आधार पर क्षत्रिय थे, लेकिन मानस में विप्र संबोधित कहे गए, क्योंकि वह भी ब्रह्म को जानते थे, वेदव्यास ने भी योग्यता के आधार पर अपना शिष्य सूत पुत्र रोमहर्षण जी को बनाया, उनका ऋषि मुनियों द्वारा सम्मान जग प्रसिद्ध है। कई दिन लग जायेंगे, इस विषय पर लिखते, बस हमें समझना इतना ही है, कि जिन जातियों या वर्णों की हम बात करते हैं वह परमात्मा ज्ञान में हमारी योग्यता का स्तर मात्र है, न कि हमारा जन्म आधारित ब्राह्मण होने का अहंकार या शूद्र होने पर नीचता का भाव, शूद्र यदि ब्रह्मज्ञानी है, तो ब्राह्मण है, और अगर कथित ब्राह्मण परमात्म ज्ञान से परिचित नहीं है, और उस मार्ग पर चलना प्रारंभ करता है, तो उसे अपने से योग्य गुरु के पास जाना होगा, जिन्हें हम योग्यतानुसार ऊंचे वर्णों का कहेंगे, उनकी सेवा करनी होगी, ज्ञान प्राप्त करना होगा, और क्रमशः वैश्य, क्षत्रिय, और ब्रह्म को जानकर वास्तविक ब्राह्मण हो जायेगा।

कुंडलिनी जागरण (चक्र भेदन)

कहा जाता है कि जो लोग किसी सिद्धि प्राप्ति की लालसा से चक्र भेदन कुंडलिनी जागरण जैसी क्रियाएँ करते हैं, उन्हें शारीरिक और मानसिक तनाव व् समस्यायें हो जाती हैं, कारण, कि उनका शरीर व् मन मस्तिष्क इस लायक नहीं होता जो उस ऊर्जा का प्रवाह झेल सके, कुछ गुरु शक्तिपात के द्वारा भी ऐसी कुछ अनुभूतियाँ कराने में सक्षम होते हैं, लेकिन यह मार्ग खतरनाक है, अतः पहले अपने शरीर और मन को इस लायक बनाना चाहिये जो चक्र भेदन कुंडलिनी जागरण के लिये उठने वाली ऊर्जा को झेल सके।

अतः साधक को निम्न पञ्चमार्ग अपनाना चाहिये:

1. सात्विक भोजन (जैसा अन्न वैसा तन एवं मन)

2. अहिंसा - अर्थात मन एवं कर्म से सात्विकता (किसी का भी अहित किसी भी प्रकार से न करने की चेष्टा, विचार भी न लाना)

3. सत्य (सत्य का अर्थात सत्य बोलना नहीं, जो भी समाज के हित में है, ऐसा कार्य करना

4. इंद्रिय संयम - इंद्रियों के दास न बन कर उन्हें अपना दास बनाना

5. दान - याद रखें, प्रसिद्धि की लालसा दे किया गया दान कभी शुभ फल नहीं देता, दान गुप्त होना चाहिये, प्रसिद्धि की लालसा अहंकार की कामना है, जो वर्जित है

इन सद्गुणों को ब्रह्मचर्य भी कहते हैं - अर्थात ब्रह्म जैसी चर्या (कार्य)

अब बात आती है, कि इस दुरूह मार्ग पर चला कैसे जाये, तो याद रखें निरंतर अभ्यास से ही यह सम्भव है।

साधक को चाहिये कि सबसे पहले वह तामसिक भोजन को त्याग कर सात्विक एवं संयमित आहार ग्रहण करना शुरू करे, प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में योग एवं प्राणायाम का अभ्यास शुरू करे, अपशब्द, गलत बोलने, और नकारात्मक विचार एवं माहौल से खुद को बचाये, यथोचित कर्म जो आपके परिवार और समाज दोनों के लिये उपयुक्त हो, उसमें ईमानदारी से संलग्न रहे, किसी का एक भी पैसा चोरी या गलत मार्ग से लेने की कल्पना भी न करे

अगर आप इस मार्ग पर चल पड़ेंगे, तो आप को  स्वतः ही आत्मा परमात्मा, कुंडलिनी जागरण, चक्र भेदन का ज्ञान एवं अनुभव होने लगेगा, और आप स्वयं को छठी इंद्रिय के जागृत होने का अनुभव दे पायेंगे, जिसे हम शिव का तृतीय नेत्र भी कहते हैं।

एक अभ्यास तुरंत शुरू करें: मन को शांत रखते हुये उगते हुये सूर्य को कुछ देर एकटक देखते हुये उन्हें गायत्री मंत्र का जाप कर प्रणाम करें, कोशिश करें, सुबह जितना संभव हो, सूर्य को देखें - एक सप्ताह में ही आपको अपने भीतर सकारात्मक परिवर्तन नज़र आने लगेंगे।

सिद्धियाँ और प्रदर्शन
कोई ज्ञान हासिल करने के लिये धैर्य एवं बहुत सा समय, कुछ महीनों या सालों का नहीं, कई जन्मों का भी हो सकता है, आवश्यक होता है, हमें पता नहीं होता कि हम कौन थे, कितने जन्मों से क्या कर रहे थे, किस उद्देश्य को ले कर चल रहे थे, जाना कहाँ है, कितने जन्म और बाकी हैं, वगैरह वगैरह। श्रीकृष्ण ने गीता में भी लिखा है, कि जो एक बार मेरे द्वारा नियत कर्म पर चल पड़ता है, उसका अनेक जन्मों के बाद, उद्धार होता ही है, यानी सीधा सा नियम है, नदी, सागर में मिलेगी ही, कभी न कभी। ऐसे ही आत्मा भी एक दिन परमात्मा में मिलनी ही है, चाहे 10, 50, 500, 50000 जन्मों के बाद ही सही, जो जितना जागरूक जीवन जीता है, उसके मोक्ष अर्थात ब्रह्माण्डीय परम चेतना से एकाकार होने के चांसेस उतने ही बढ़ जाते हैं, और ये जागरूक जीवन जीने वाले लोग ही सिद्ध कहलाते हैं, सिद्धि एक पड़ाव है, मंजिल नहीं, श्रीकृष्ण भी कहते हैं, बहुत से भक्तों में कोई भाग्यशाली ही प्रयास करता है मेरे मार्ग पर चलने का, और उनमें से भी कई सिद्धियों में उलझ कर रह जाते हैं, और मार्ग से भटक जाते हैं, यानी यह सांप सीढ़ी का खेल है, 99 पर जा कर भी सांप काट सकता है, और फिर वही 2 या 3 से शुरू, लेकिन कई बार गिरने, उठने के क्रम के बाद भी 100 तक तो पहुँचोगे ही, यह श्रीकृष्ण के द्वारा भी बताया गया अकाट्य सत्य है, लेकिन 1 जन्मों में पहुंचना है या एक लाख या फिर 83 लाख 99 हज़ार फिर गिनने हैं, सब संयम एवं जागरूक जीवन जीने पर निर्भर है।
बहुत से सन्यासी, ऋषि आश्रमों में आज भी हैं, जो आपके सामने पहुचंते ही बता देते हैं कि आप क्यों आये, और कृपा भी करते हैं। यही शास्त्री जी भी कर रहे हैं।
लेकिन एक सत्य और भी है, कि सिद्धियाँ आपके बैंक की ज़मा पूँजी की तरह ही होती हैं, जितना बांटोगे, उतनी ही घटेंगी, अगर धोखे से किसी कुपात्र पर कृपा की गई, तो सिद्ध नष्ट होने की ओर भी बढ़ता है, इसीलिए पुराने ज़माने में ऋषि मुनि जंगलों में ही रहते थे, बड़े ध्यान से सुपात्र देख कर ही शिष्य बनाते थे, सिद्धियों का प्रदर्शन नहीं करते थे, और काम क्रोध से बचते थे, क्योंकि उनकी मंजिल मोक्ष होती थी, सिद्धियों में फंसकर समय नष्ट करना वो उचित नहीं समझते थे।
:आलोक पांडेय उरई
भूत प्रेत होते हैं या नहीं
यह सदियों से बहस और भ्रम का मुद्दा है, कुछ लोगों को लगता है कि होते हैं, और कुछ के हिसाब से नहीं।
कुछ रहस्य के पर्दे, खोलने की कोशिश करता हूँ, इतना समझ लीजिये, कि यह पूर्ण रूप से मनोवैज्ञानिक विषय है, इसके अलावा कुछ और नहीं।
अगर आपके परिवार, या आस पास के समाज में (जिस माहौल में परवरिश हुई है), पीढ़ियों से भूत प्रेत, ऐसी बाधाओं के मानने की घटनाएँ हैं, तो ज़ाहिर है आप भी इनसे अछूते नहीं रह सकते, आधुनिकता के लबादे में, आप थोड़ा बहुत इनका असर कम कर सकते हैं, लेकिन अगर आपके परिवार में इनकी मान्यता रही है, तो इस मान्यता से, आपके पूरी तरह से मुक्त होने की संभावना लगभग नगण्य हो जाती है, किसी कोने में एक डर रहता ही है। बस यह डर ही सृष्टि करता है, ऐसी ऊर्जाओं की उपस्थिति की।
अब और अच्छी तरह आसान शब्दों में समझिये, आपका मन ही सारे गज़ब खेल का खिलाड़ी है, या कहें कि अगर आपके परिवार, माहौल इत्यादि में ये बातें होती रही हैं, तो आपका मन भी उसी तरह से प्रोग्राम्ड है, और कमज़ोर हो चुका है, इसलिये ऐसी बाधाओं से आपको डर लगता है, और ये आपके सामने आती भी हैं। दूसरी तरफ जिसका मन मज़बूत है, उसे ये सब बातें परेशान नहीं करतीं। यानि जिस प्रतिशत में आपके मन मे कमज़ोरी या मज़बूती है, उसी प्रतिशत में भूत प्रेत पर विश्वास करने या इनका शिकार बनने के चांसेस बढ़ते हैं, आपने कई लोगों को दरबारों में, सिद्धों के सामने उछलते कूदते, नाचते देखा होगा, यह इन लोगों के, भयंकर रूप से कमज़ोर मन को दर्शाता है, और प्रकृति का सीधा नियम है, कि कमज़ोर, ताकतवर का शिकार होता है, या फिर उसकी दया पर निर्भर होता है।
अब बात आती है, कि ये होते हैं या नहीं, तो एक रहस्य समझ लीजिये, कि इस ब्रह्मांड में सब कुछ पहले से ही मौजूद है, आप जिस किसी भी चीज की कल्पना करें, वह सब इस ब्रह्माण्ड में आपके लिये मौजूद है, आपके मन की फ्रीक्वेंसी की मैचिंग के हिसाब से, चीजें आपके जीवन मे घटित होनी शुरू हो जाती हैं, अब यह आपके ऊपर है, कि आप क्या ज्यादा सोचते हैं, वही आपके सामने देर सबेर आयेगा ही आयेगा। बस परिणाम इस बात पर निर्भर है, कि आपका मन कितना कमज़ोर या ताकतवर है। "संकल्प से सिद्धि" यूं ही नहीं कहा गया है, इसकी अर्थ है, कि आप जैसा सोचते हैं, वैसा ही बनते हैं।
चलिये जिनको भूतों से डर लगता है, उनके लिये एक आसान उपाय यहाँ बता रहा हूँ, 21 दिन कीजिये, फिर बताइयेगा, कितना आराम मिला, मेरे हिसाब से भूत आपके अगल बगल कम से कम दो तीन घरों में भी नहीं आयेंगे इस उपाय के बाद।
उपाय (21दिन, अर्थात 3 सप्ताह):
रोज़ाना सुबह सूर्योदय देखें, सूर्योदय देखते समय गहरी सांस के साथ, 9 बार ॐ का जाप, नियमित रूप से 21 दिन तक करें, पूजा में साफ स्वच्छ नहा धो कर, बजरंगबली, जिनके नाम से ही नकारात्मक शक्तियाँ कोसों दूर भागती हैं, उनको ध्यान में प्रणाम करते हुये, रोज़ बजरंग बाण का पाठ करें, मंगलवार को बजरंगबली के मंदिर जायें, वहाँ बैठ कर मन ही मन ॐ का जाप या हनुमान चालीसा पढ़ें, मंदिर में 10 15 मिनट बैठें ज़रूर, और हाँ, अगर प्रसाद चढ़ाना हो, तो बजरंगबली के मुँह मे प्रसाद न ठूँसे, प्रसाद चढ़ाना हो, तो विनय भाव से उनके पास रखे किसी पात्र में चढ़ायें, या ऐसे ही उनके चरणों मे रख कर फिर प्रसाद ले कर खुद ग्रहण करें, लोगों में बाटें।
आपको पहले सप्ताह से ही सकारात्मक ऊर्जा का एहसास होना शुरू हो जायेगा, जीवन से समस्याओं का अंत होता महसूस होगा।
विज्ञान और साइंस
कई लोग सोचेंगे, विज्ञान और साइंस तो हिंदी इंग्लिश हैं, एक ही अर्थ है, ये अलग अलग क्यों लिखा है, हमारी बुद्धि पर सवाल भी उठ सकते हैं, यही अनर्थ ज्ञान हम सबने जब से होश संभाला है, तब से अविवेकी जीव की तरह रटे जा रहे हैं।
दोष हमारा नहीं है, हमारी हज़ारों सालों की गुलामी की वजह से हुई हमारी दिमाग़ी कंडीशनिंग का है, हम अपना प्राचीन वैभवशाली ज्ञान छोड़ कर,अनपढ़ों की तरह उनके इशारे और ज्ञान पर सीखने और चलने लगे, जैसे कोई अल्पबुद्धि पशु, अपने मालिक के इशारे पर चलता है। पहले मुगल, फिर अंग्रेज, बेड़ा गर्क हो गया हमारा, और पीढ़ियों की ग़ुलामियत हमारे DNA को आज भी नहीं छोड़ पा रही है, और यह लाज़िमी भी है, अगर हाथी के बच्चे को बचपन में मोटी रस्सी से खूंटे से बांध कर रखा जाए, तो बड़े होने पर उसकी दिमागी कंडीशनिंग बंधे रहने की हो जाती है, और वह पतली सी रस्सी को भी तोड़ने की कोशिश नहीं करता, यहाँ भी यही हाल है, एक जन्म की और कुछ सालों की कंडीशनिंग हमारे व्यक्तित्व को परिवर्तित कर देती है, तो सोचिये ज़रा, हज़ारों सालों की ग़ुलामीयत ने हमारी दिमागी संरचना और DNA का क्या हाल किया होगा।
खैर अब आते हैं, विज्ञान पर, विशुद्ध ज्ञान को ही विज्ञान कहते हैं, विशुद्ध ज्ञान यानि ज्ञान की पराकाष्ठा, मतलब उसके आगे कुछ नहीं, अर्थात परमात्म तत्व का साक्षात्कार (संशय रहित जानकारी)।
विज्ञान शब्द हमारे प्राचीन ग्रंथों में कई बार आया हूं, वाल्मीकि रामायण में भी श्रीराम, शबरी को विज्ञानी कहते हैं, अगर आप हमारे प्राचीन ग्रंथों को पढ़ेंगे, तो आपको विज्ञान शब्द कई जगह मिलेगा।
भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने भी ज्ञान की परिभाषा को परमात्म की जानकारी कहा है, "और इसके सिवा सब अज्ञान है", यह उन्होंने जोर दे कर कहा है, तो हम कौन सा ज्ञान भूसे की तरह हमारे दिमागों में भर रहे हैं, और इसी भूसे को हमारी आने वाली पीढ़ियों को खिला रहे हैं, नतीजा सामने है, पथभ्रष्ट समाज यूं ही नहीं बनता, हम ही बनाते हैं, सनातन धर्म पर आधारित ज्ञान, विज्ञान की जानकारी के अभाव में।
भारत जब ज्ञान विज्ञान की सर्वोच्चता की बात कर रहा था, तब बाक़ी दुनियां में शायद लोग कपड़े पहनना भी नहीं जानते होंगे, हमारे ग्रंथों में आर्किटेक्चर, विमान, सोने, चांदी, और अन्य धातुओं का बेहतरीन उपयोग, बिजली की व्यवस्था, आयुर्वेद, ग्रह नक्षत्र का ज्ञान, सब कुछ हज़ारों सालों पहले ही वर्णित है, हमारी ही काहिली की वजह से, वे कमबख्त सब लूट कर ले गये, हमारा ज्ञान जला कर, हमें शारीरिक, वैचारिक गुलाम बना कर सब नष्ट कर दिया।
हमारा प्राचीन वैभव क्या था, जानने के लिये अपने प्राचीन लेकिन प्रामाणिक ग्रंथ पढ़ने चाहिये थे, अब तो पढ़ ही सकते थे, 75 साल तो हो गये ना आज़ाद हुए, लेकिन बात वही कंडीशनिंग की आ जाती है, यूं ही कैसे जायेगी।
साइंस जब कहता है, कि हमने फलाँ खोज की है, यह मुझे मूर्खतापूर्ण लगता है, इन्हें कहना यह चाहिये, कि साइंस ने यह जान लिया है, भाई जो कुछ भी साइंस के द्वारा तुम अब खोज रहे हो, युगों पहले सब भारतवंशियों द्वारा खोजा जा चुका है, तुम सिर्फ अपनी लिमिटेड बुद्धि या कहें बेबी स्टेप्स से वह सब धीरे धीरे समझने की कोशिश कर रहे हो, और हम दुर्भाग्यवश अपनी वही पुरानी गुलामी वाली मेंटल कंडीशनिंग की वजह से तुम्हारे पीछे चल रहे हैं, कि भइया इन्हीं की नौकरी करनी है, यही सही हैं। लेकिन हम भी अब जाग तो रहे ही हैं, बस जागृत होना बाकी है, मालिक वाली फ़ीलिंग लानी बाकी है।
कहाँ हमारा परमात्म से साक्षात्कार कराता विज्ञान, और कहाँ तुम्हारा बेबी स्टेप्स वाला साइंस, जो अभी ठीक से चलना भी नहीं सीखा।
ढोल गँवार शूद्र पशु नारी, चौपाई का शाब्दिक अर्थ
असल में लोगों में मानसिक ग़ुलामी तथा धैर्य की कमी के कारण सही जानने और समझने की क्षमता हज़ारों सालों (मुग़ल काल) से ही, विलुप्त हो चली है, धर्म जाति के नाम पर सामाजिक विद्रूपता फैलाने वालों ने भी वैदिक काल से ही खूब सामाजिक सत्यानाशी मचाई है, जिस वजह से सात्विक ज्ञान विलुप्त होता चला गया, और अधकचरे ज्ञान के ढेर में उलझा मानव, पाखण्ड को ही ज्ञान समझने लगा, और सत्य तथा परमात्मा से कोसों दूर हो गया।
अब आते हैं, चौपाई पर: पहली बात, यह चौपाई तुलसीदास जी की लिखी राम चरित मानस का अंग है, जो त्रेतायुगीन वाल्मीकि रामायण पर आधारित है, वाल्मीकि रामायण क्लिष्ट संस्कृत में होने के कारण जन मानस तक नहीं पहुंच पा रही थी, इसीलिये तुलसी जी ने साधारण लोकप्रिय अवधी भाषा मे सुंदर गायन शैली में इसका कलियुग में दोबारा चित्रण किया, हालाँकि राम चरित मानस के कई प्रसंग, वाल्मीकि रामायण से मेल नहीं खाते, लेकिन इस पर बात फिर कभी, उन्होंने जो लिपिबद्ध किया, वह इस कलियुगीन रसातल की ओर जाते समाज को बचाने के लिये सर्वोत्तम प्रयास था, क्योंकि जनता की बुद्धि का स्तर इतना ही था, जितना उन्होंने उन्हें समझाने के लिये लिखा।
तो बात करें मानस की इस चौपाई की, तो पहली बात यह संवाद समुद्र ने श्री राम से किया है, जब वह श्रीराम के बाण से खत्म हो जाने के डर से बाहर विनय करने आया था, ज़ाहिर सी बात है, यहाँ श्रीराम समर्थ हैं और समुद्र खुद को अज्ञानी के रूप में प्रस्तुत कर रहा है, यहाँ सकल का अर्थ "समुचित" यानि "अच्छी तरह" से और ताड़ना का अर्थ देखभाल से है, अगर ढोल, गँवार (मूर्ख), शूद्र - यहाँ शूद्र का अर्थ समाज के निचले स्तर पर खड़े इंसान का है, जो अपनी उन्नति के लिये दूसरों की दया पर निर्भर है (यह जाति विषयक बिल्कुल नहीं है, जाति विषयक बनाना, पाखंडियों की देन है), पशु (जानवर) और नारी (स्त्री) की समुचित देखभाल आवश्यक है। अब यहाँ उद्दंडता दिखाने और आज़ादी के नारे लगाने वाले ऊटपटांग कमेंट न करें, क्योंकि उन्हें पहले समझ विकसित करनी होगी, तभी भारतीय दर्शन समझ पायेंगे, बस इतना ही समझा सकता हूँ, कि स्वछंदता एवं स्वतंत्रता (आज़ादी) में अंतर है, आपकी आज़ादी वहाँ खत्म होती है, जहाँ मेरी शुरू होती है, आज़ादी बिना अनुशासन और कर्तव्यों के नहीं आती, अगर मेरी बात न समझ आ रही हो तो, कृपया इस प्रकृति में एक उदाहरण बताइये, जो अनुशासन हीन हो, अरे जब प्रकृति खुद अनुशासन में बंधी है, तो तुम कौन सी आजादी माँग रहे हो ??
नदी ज़रा सा अनुशासन तोड़े, तो बाढ़ लाती है, अतः इतना समझ लो, आज़ादी का अस्तित्व अनुशासन के बिना नहीं हो सकता।
और तुलसीदास जी की इस चौपाई में समुद्र ने यही कहा है, ताड़ना का अर्थ भी यही है, अनुशासन युक्त देखभाल (सकल ताड़ना)।
ढोल गँवार, शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी - भाग 2
पूर्वाग्रह से ग्रसित अधिकांश विद्वान लोग समझने को तैयार ही नहीं हैं, कि ताड़ना का अर्थ देखभाल से है, ये लोग ताड़ना का अर्थ पीटना लगा कर, सिरे से मानस को मनुवादी करार देने पर तुले हुये हैं, कौन से भाषा में और कैसे समझाया जाये, बड़ा कठिन है, इसी नासमझी के कारण सनातन धर्म का पतन हुआ है, ग्रंथ पढ़ेंगे नहीं, अधकचरे ज्ञान पर उल्टी मान्यतायें बना लेंगे और सत्य से दूर खड़े हो जायेंगे, और भटकते रहेंगे, साथ मे दूसरों को भी भटकायेंगे।
ये लोग कहते हैं ढोल को देख कर क्या लाभ, उसे तो पीटा ही जाता है, इसीलिये ताड़ना का अर्थ पीटना है।
अब ज़रा समझने का प्रयास कीजिये, हो सकता है, आज से पहले आपने इस विषय पर ध्यान न दिया हो,
ढोल:
शंख, नगाड़ा, ढोल तुरही इत्यादि आदिकाल से ही राजाओं, महाराजों के युद्धघोष संबंधी वाद्ययंत्र रहे हैं, और इनकी देखभाल अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती थी, ढोल और नगाड़े की आवाज़, शत्रुदल में भय और पक्षीय सेना का मनोबल अत्यंत ऊंचा कर देती थी।
ढोल या नगाड़े का फटना, अशुभ माना जाता था, और संबंधित राज्य की पराजय से जोड़ कर देखा जाता था, इसीलिये ढोल नगाड़ों समेत अन्य युद्ध विषयक वाद्ययंत्रों की देखभाल महत्वपूर्ण थी।
(यदि यकीन न आ रहा हो, तो 29 जनवरी,2023 का दैनिक जागरण देखें, आदिकाल से ही ढोल की महत्ता के बारे में )।
अतः सिद्ध होता है, कि ढोल को पीटने से नहीं संबंध उसकी देखभाल से है।
गँवार (मंदबुद्धि): देखभाल ज़रूरी है या नहीं, खुद ही सोचिये।
शूद्र: यहाँ शूद्र का अर्थ, अज्ञानी से है, वह जो ब्रह्मज्ञान पाना चाहता है, श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन को ब्राह्मण बनने को कहते हैं, अर्थात, ज्ञान की पराकाष्ठा पाने को, अगर हम अज्ञानी हैं, तो हमें खुद से ऊँचे स्तर के साधक (ज्ञानी) की सेवा करनी होगी, वे हमारी देखभाल करेंगे, कृपा करेंगे, और ज्ञान प्रदान करेंगे, क्रमशः ज्ञान की ऊंचाई में उठते जाना ही, शूद्र से क्रमशः वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण होते जाना है। यही श्रीकृष्ण ने भी कहा है, और इस चौपाई में भी अर्थ यही है, कि अज्ञानी, अल्पज्ञानी अर्थात शूद्र की देखभाल आवश्यक है।
जन्म के आधार पर जाति विभाजन पाखंडियोंकी देन है।
पशु: पशु की देखभाल करनी चाहिये या नहीं आप खुद निर्णय लें।
नारी: समाज में आसुरी शक्तियाँ आज से नहीं आदिकाल से हैं, मानो या न मानों, शारीरिक रूप से, कम शक्तिशाली की सुरक्षा का भार, सदा से अधिक शक्तिशाली के कंधों पर रहा है, नारी को सदा ही पूज्यनीय, माना गया है, स्त्री को धन भी कहा गया है, इसलिये देखभाल की बात की गई है।
अब यहाँ पीटना किसने कहाँ समझ लिया, समझ से परे है।
फिर भी कुतर्क की गुंज़ाइश हो तो,
कृपया, वह उसे बड़ी देर से ताड़ रहा था, इसका अर्थ बताइये।
और अगर ताड़ना का अर्थ फिर भी पीटना बताने पर तुले हो, तो प्रताड़ना का अर्थ क्या है ?
ताड़ना, प्रताड़ना, लताड़ना - सब अलग अलग हैं बंधुओ।

QUESTIONS & ANSWERS

हम कौन हैं ?

हमने बहुत सी मशीनें बनाईं, उन्हें चलाना सीखा, लेकिन "मानव" जो, इस पृथ्वी की सबसे अद्भुत और ताकतवर मशीन है, उसे बगैर जाने चला रहे हैं, अगर हम इस मशीन को जान लें, तो हम अपने जीवन का उद्देश्य निश्चय ही जान पायेंगे, परमात्मा इंतज़ार कर रहे हैं, कि कब उनकी बनाई यह मशीन उनके निर्देशों पर चलेगी। धर्म कुछ और नहीं, ईश्वरीय निर्देश ही हैं, जिन्हें समझने के लिये मानव को स्वयम् में धैर्यपूर्वक झाँकना होगा, फिर आप पायेंगे, कि गीता जिसे " कर्म" कहती है, प्रारम्भ हो गया है। जिस दिन आप यह जान लेंगे, कि आप इस ब्रह्मांड का एक अंश मात्र हैं, और आप जो भी, जैसा भी कर्म करते हैं, उससे संपूर्ण सृष्टि प्रभावित होती है, आप पाप पुण्य की परिभाषा, और जीवन का उद्देश्य भी जान लेंगे, बस आवश्यकता है, धैर्य पूर्वक सद्गुरु के मार्गदर्शन में सतत् अभ्यास की। बिन गुरु ज्ञान कदापि संभव नहीं।

तीसरी आँख

तीसरी आँख कोई अतिरिक्त आँख नहीं, बल्कि समझ का उच्च पहलू है, हमारी दो आँखें स्थूल जगत को देखती हैं, और तृतीय नेत्र खुलने का अर्थ है, समझ के नये आयाम को प्राप्त करना, वह समझ जो यथार्थ देखती है, स्थूल जगत से परे।

भगवान

"भग" का अर्थ है इस सृष्टि में व्याप्त समस्त श्री (ऐश्वर्य) और सुख का आधार, और "वान" का अर्थ है, स्वामी, अर्थात ब्रह्माण्ड में व्याप्त समस्त सुख संपदा के स्वामी ही "भगवान्" हैं, वैराग्य सुख की उच्चतम श्रेणी है,  भग का अर्थ योनि होता है और वान का अर्थ मालिक, जैसे धनवान - धन का मालिक, बलवान - बल का मालिक, उसी प्रकार भग का मालिक - भगवान, संपूर्ण जगत की उत्पत्ति योनि से ही होती है, जैसे संपूर्ण जीव जंतु जगत पृथ्वी से उत्पन्न है, यह पृथ्वी या कहें प्रकृति भी एक योनि है, जिससे संपूर्ण सुख हमें प्राप्त होते हैं, कहने का तात्पर्य हर संपूर्ण ज्ञात जगत के सुख का आधार योनि "भग" है, और उसका स्वामी भगवान।। भगवान और ब्रह्म दोनों अलग अलग बातें हैं, भगवान वो जो सुख के स्रोत का नियंता है, समर्थ है। जैसे बच्चे के लिये उसका पिता भगवान, नारी के लिये उसका पति भगवान, अर्थात एक ऐसी समर्थ शक्ति जो आपके सुख के लिये वह कर सकती है, जो आप की क्षमता से परे है, वह भगवान है। भगवान हर जगह है, यानि इस जगत में ऐसा कुछ भी नहीं जो सुख देने में असमर्थ हो, बिना किसी काम हो, यह सिद्ध करता है कि भगवान अर्थात वह समर्थ शक्ति हर कण में विद्यमान है, आपका पालन पोषण कर रही है।

गणपति

प्रथम आराध्य "श्रीगणेश" सृष्टि की सम्पूर्ण व्यवस्था और गुणों को प्रदर्शित करते हैं, इस आदर्श व्यवस्था और गुणों को हर जीव को धारण करना चाहिये, श्रीगणेश "हिरण्यगर्भा" रूप में संपूर्ण सृष्टि को धारण करने वाले एवं व्यवस्थापक हैं।
इनके बड़े कान उत्तम श्रोता के गुणों को, सूँड़ एवं दन्त चरम क्रियाशीलता एवं व्यावहारिक विराट शक्ति को, सूक्ष्म नेत्र पैनी दृष्टि को, उदर अपने गर्भ में हर गुण और दोष युक्त सम्पूर्ण सृष्टि के निरंतर विस्तार को संयम के साथ धारण करने की क्षमता को, शस्त्रों से सुसज्जित हाथ सुरक्षा के दायित्व निर्वहन को, विश्राम, चिंतन या फल खाने की मुद्रा में हाथ सृष्टि के पोषण को, एवं अभय दान मुद्रा में हाथ, श्रष्टि को अपने संरक्षण में सदा भयमुक्त रहने का वरदान एवं शिक्षा देता है। सृष्टि व्यवस्था के सुगम संचालन के लिये हर जीव को यही गुण अपनाने चाहिये, ॐ स्वरूप गणपति का यही संदेश है।

ॐ - ईश्वर का नाम

ॐ, संपूर्ण सृष्टि का आधार है, वह प्रथम तत्व जिससे सम्पूर्ण सृष्टि अस्तित्व में आई, अगर ध्यान दें तो पायेंगे कि ब्रह्माण्ड में हर कण ॐ की ही ध्वनि उत्पन्न कर रहा है!! ॐ ही प्रथम नाद है, यह सृष्टि की व्यवस्था अर्थात "भगवान श्री गणेश" को भी निरूपित करता है, अर्थात भगवान श्रीगणेश ही ॐ हैं, जो सृष्टि के व्यवस्थापक माने जाते हैं।

भवसागर - मुक्तिमार्ग

वर्तमान परिपेक्ष्य में , जिसे हम कलियुग कहते हैं, अगर विचार करें, तो पायेंगे, कि अर्जुन एवम् श्रीकृष्ण हमारे स्वयं के भीतर सदा विद्यमान हैं, हमारा संशय युक्त, मोह, माया, आडम्बरों में जकड़ा मन ही अर्जुन है, और उसके सारथी बन कर सदा ही श्रीकृष्ण, हमारी ही जागृत बुद्धि के रूप में विद्यमान हैं!! देर सिर्फ बुद्धि को जागृत अवस्था में स्थापित करने की है, सद्गुरु के मार्गदर्शन में यह संभव है।

अध्यात्म

अध्यात्म का अर्थ है, आत्म अध्ययन, जैसे आप किसी मशीन का मैनुअल पढ़े बगैर उसे चलाना नहीं सीख सकते, वैसे ही आध्यात्म के बिना आप जीना कैसे सीख सकते हैं ? आध्यात्म ही मैन्युअल है हमारा, इसे अवश्य पढ़ें।

युग परिवर्तन

अगर आप सर्वोत्तम आचरण से युक्त हैं, तो आप सतयुग में हैं, अगर कर्म दूषित होते चले गये, तो आप क्रमशः त्रेता, द्वापर और तत्पश्चात कलयुग में प्रवेश करते हैं!! युग परिवर्तन कहीं बाहर नहीं, आपके भीतर ही होता है, हर पल हर रोज़, पहचानें, आप किस युग में हैं।

आत्म साक्षात्कार

शरीर से ऊपर इंद्रियाँ हैं , इंद्रियों से ऊपर मन, मन से ऊपर बुद्धि और बुद्धि से भी ऊपर आत्मा है, मतलब आप!! आप परमात्मा का ही अंश हैं, जिस दिन आपकी आत्मा, परम भाव में प्रवेश कर गई, आप परमात्मा हो जायेंगे!! सद्गुरु की कृपा और निरंतर अभ्यास से आत्म साक्षात्कार संभव है।

सर्वस्व और हम

"सर्वस्व" में "स्व" निहित है, लोक कल्याण, अर्थात सर्वस्व के लिये कर्म करने से स्व अर्थात स्वयं का कल्याण निश्चित है।

भाग्य

भाग्य का निर्माण हमारे ही कर्म करते हैं, जो पहले किया आज भोग रहे, और जो अब कर रहे, आगे भोगना निश्चित है!! इस सृष्टि के नियमानुसार जो हम देंगे, वापस वही मिलेगा, बबूल का बीज बोने से कांटे ही मिलेंगे, आम के फल नहीं, फिर भाग्य को कोसना कैसा

पाप और पुण्य

आपकी ऊर्जा जैसी होगी, वैसी ही वाइब्रेशन आपके आस पास उत्पन्न होती हैं, और वैसा ही प्रभाव आपके आसपास और संपूर्ण वातावरण में पड़ता है, अतः हमें सृष्टि के संचालन में अपनी भागीदारी को समझना चाहिये, ऊर्जा नकारात्मक होगी, तो पाप बढ़ेगा, सकरात्मक होगी तो पुण्य, बहुत आसान है इसे समझना। 

दीर्घसूत्री एवं संशयात्मक बुद्धि

भगवद् गीता के अनुसार दीर्घसूत्री एवं संशयात्मक बुद्धि अर्थात् ( लेट लतीफी, टाल मटोल, कल कर लेंगे एवं करें न करें ) इत्यादि तामसी गुणों को प्रदर्शित करती है, एवं आपके कर्म में बाधक बनती है।

मुक्ति मार्ग

इस नश्वर संसार रूपी पेड़ की पत्तियों, फूलों, फलों, तने में उलझने एवं इनको भजने, या इनसे सम्मान की अपेक्षा से क्या लाभ, मूल रूपी परमात्मा का भजन एवं उनके अनुसार आचरण ही मुक्ति मार्ग है।

मोह

मोह ही परम व्याधि है, और हर व्याधि की जड़ भी, मोह में आसक्त व्यक्ति समभाव नहीं अपना पाता, अपने पराये का भाव और पक्षपात का दुर्गुण भी मोह से ही उपजता है, जहां प्रेम आपको मुक्ति देता है, शक्ति प्रदान करता है, वहीं मोह, बंधन का एवं दुर्बलता का कारण है।

गुरु

गुरु ढूंढे नहीं जाते, आपके प्रारब्ध एवं वर्तमान में किये जा रहे कर्मों के फलस्वरूप उत्पन्न ऊर्जा से, स्वतः ही आप उनकी ओर आकर्षित होते हैं, और वे, भवसागर से पार उतारने को, आपकी जीवन नैया की पतवार सँभालते हैं, अतः जागृत जीवन जीने का प्रयास कीजिये, सकारात्मक ऊर्जा का स्तर बढाइये, शीघ्र ही गुरु स्वयं प्रकट हो जायेंगे।

ब्रह्मचर्य

ब्रह्म का जैसा आचरण है, वैसा ही आचरण, ब्रह्मचर्य है, परमात्मा अर्थात ब्रह्म का अनवरत चिंतन, लगातार अभ्यास के फलस्वरूप आत्मा को माया के समस्त बंधनों से परे ले जा कर, परम भाव अर्थात परमात्मा (ब्रह्म) की स्थिति प्रदान करने की क्षमता रखता है, फिर द्वैत भाव मिट कर सर्वव्यापी अक्षर ब्रह्म ही रह जाता है।

दान

जो कार्य, दान इत्यादि प्रशंसा के उद्देश्य से किए जाते हैं, उनका फल आध्यात्मिक मार्ग में साधक के विरुद्ध ही जाता है, कुपात्र को दिया गया अथवा प्रशंसा की इच्छा से दिया गया दान, साधक को नष्ट कर देता है, साधुता से दूर ले जाता है, मिथ्या संसार की नज़र में ऊंचा दिख सकते हो, लेकिन परमात्मा से दूर हो जाते हो।

आध्यात्मिक यात्रा

जैसे बच्चा पहले गर्दन संभालना, बैठना, चलना फिर दौड़ना सीखता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक यात्रा भी है, बच्चे को मां संभालती है, और साधक को सद्गुरु, पहले सामने से, फिर स्वयं हृदय में उतर कर, रथी बन कर।

विज्ञान

विज्ञान का अर्थ है, विशुद्ध ज्ञान, वह ज्ञान जो परमात्मा से साक्षात्कार करा दे, और इसी ज्ञान मार्ग पर चलने वाला ही विज्ञान का छात्र कहलाने योग्य है, साइंस एक पाश्चात्य सांसारिक ज्ञान की धारा है, इसे विज्ञान कहना अनुचित है।

ब्राह्मण

ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः, अर्थात्, ब्रह्म को जो जानता है, वही ब्राह्मण है।

ज्ञान

ज्ञान किसी बहस तर्क वितर्क का विषय नहीं, जो परमात्मा को प्रत्यक्ष जानता है, वही ज्ञानी है, और यही शाश्वत जानकारी ही ज्ञान है।

गोवर्धन पूजा

गोवर्धन पर्वत की पूजा की सलाह दे कर, भगवान श्रीकृष्ण का सीधा संदेश था कि जो तुम्हारा और तुम्हारे परिवार, पशुओं का लालन पालन करता है, उसकी पूजा करो, संरक्षित रखो, अर्थात पृकृति की पूजा करो, अगर तुम प्रकृति की रक्षा अपने भगवान की तरह करोगे, तो मैं तुम्हें, स्वयं हर आपदा से बचाऊंगा, जैसे मैंने समूचे पर्वत को एक ऊँगली पर उठा कर तुम्हारा कोई अहित नहीं होने दिया था, और इंद्र का घमंड चकनाचूर किया था!! पृकृति तुम्हारी माता पिता पालनहार है, इसकी पूजा करो, सुरक्षित रखो, इसे क्षति पहुँचाना अधर्म है, और अधर्मियों का विनाश मेरा परम कर्तव्य।

भाग्य

भाग्य का निर्माण हमारे ही कर्म करते हैं, जो हमने पहले इस जन्म अथवा पूर्व जन्मों में किया, आज भोग रहे हैं, और जो अब कर रहे, आगे भोगना निश्चित है।  इस सृष्टि के बड़े ही पारदर्शी नियमानुसार, जो हम देंगे, वापस वही मिलेगा, बबूल का बीज बोने से कांटे ही मिलेंगे, आम के फल नहीं, फिर भाग्य को कोसना कैसा ?

योग

योग का अर्थ है जोड़ना, योग सिर्फ स्वस्थ रहने के लिये व्यायाम मात्र ही नहीं, यह प्रकृति का परम सूत्र है, आपको परम सत्ता से जोड़ने का, आपको व्यापक बनाने का सीमाओं से परे।  योग और प्राणायाम के निरंतर अभ्यास द्वारा आप जीवन का यथार्थ देखने में सक्षम हो जाते हैं, अपनी शक्तियों का आभास करते हैं और समझ जाते हैं कि आपका ही परम रूप परमात्मा है, और फलस्वरूप अपना नियत कर्म जो भगवत् गीता में इंगित है, उसे जान जाते हैं।

MYTHS AND FACTS

रामायण भ्रांति निवारण: लक्ष्मण रेखा (संदर्भ, वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड)

यह काल्पनिक लक्ष्मण रेखा, किसी रचयिता ने, वाल्मीकि रामायण के बहुत काल के पश्चात स्त्रियों को मर्यादा में रहने की शिक्षा देने के उद्देश्य से खींची होगी, वाल्मीकि रामायण में ऐसा कोई प्रसंग नहीं है, व्याकुल सीता जी श्रीराम की आवाज़ के रूप में राक्षस मारीच की पुकार सुन कर स्त्री सुलभ अनेक कठोर, अपमानजनक, भाई के घाती इत्यादि दुसह्य हृदय विदीर्ण करने वाले वचन कह कर श्रीराम की रक्षा हेतु जाने के लिए मजबूर करती हैं, और लक्ष्मण जी मजबूर हो कर वहां से चले जाते हैं, यह जानते हुए भी, कि यह माया राक्षसों द्वारा निर्मित है, श्रीराम सकुशल हैं, वह ऐसी कोई रेखा नहीं खींचते, जिसके उल्लंघन का आरोप सीता जी पर आज तक समाज लगाता है, कि न वो लक्ष्मण रेखा लांघतीं, और न अपहरण होता, समाज में भी स्त्रियों को यही शिक्षा दी जाती है, और लक्ष्मण रेखा को मर्यादा से जोड़ा जाता है, यह प्रसंग तो कलियुग में लिखी गई, राम चरित मानस में भी नहीं है, समाज में धर्म के नाम पर ऐसी कई भ्रांतियां हैं, जिनका निवारण आवश्यक है, और इनका निवारण इन ग्रंथों (उक्त काल से संबद्ध एवं प्रमाणिक) को पढ़ कर, समझ कर ही संभव है।

रामायण भ्रांति निवारण सीता स्वयंवर (संदर्भ: वाल्मीकि रामायण)
अपने लेखों के माध्यम से मेरा उद्देश्य आपके समक्ष भ्रांतियां और उनसे संबंधित सत्यता को प्रकाश में लाना है, फिर भी यदि कोई महानुभाव तथ्यपरक खंडन प्रस्तुत कर सकें, तो स्वीकार्य है।
स्वयंवर का अर्थ होता है, स्वयं अपना वर चुनना, इस प्रथा में माता पिता, कोई ऐसी शर्त रखते थे, जो योग्यता की परख कर सके, और पुत्री के लिए सुयोग्य जीवन साथी का चुनाव हो सके, इस सिद्धि के लिए कुलीन युवकों को आमंत्रित किया जाता था, और जो उस शर्त को पूर्ण करता था, कन्या का विवाह उस व्यक्ति से संपन्न होता था, कन्या की स्वीकार्यता एवं अस्वीकार्यता को भी अधिकांशतः महत्व दिया जाता था, सीता जी के स्वयंवर से संबंधित अनेक भ्रांतियां हैं, जो शायद त्रेतायुगीन रामायण की रचना के बाद, रचयिताओं के अपनी ओर से काल्पनिक प्रसंग जोड़ने से प्रारंभ हुईं, यहां मेरे द्वारा संदर्भ सर्वथा प्रमाणिक त्रेतायुगीन वाल्मीकि रामायण का लिया जा रहा है:
सत्य यह है, कि सीता जी ने विवाह पूर्व श्रीराम को कभी कहीं नहीं देखा, गौरी पूजन के समय वाटिका में देखने का प्रसंग वाल्मीकि रामायण में नहीं है, श्री राम लक्ष्मण का विश्वामित्र जी के साथ मिथिला गमन मात्र प्रसिद्ध शिव धनुष को देखने की उत्सुकता में हुआ था, वहां महाराज जनक ने विश्वामित्र जी को बताया, कि पुत्री का स्वयंवर किया था, न तब और न ही आज तक कोई राजा राजकुमार, कुलीन युवक उस धनुष को उठा पाया, मैंने सोचा था कि अगर कोई सुयोग्य उस धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा दे, तो अपनी कन्या उसे ब्याह दूं, लेकिन आज तक ऐसा नहीं हो सका, इसके बाद श्रीराम ने उस धनुष को देखा और और गुरु एवं महाराज जनक की आज्ञा पश्चात, खेल खेल में उठा कर प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयास करने में शिवधनुष तोड़ दिया, और सीताराम एक हुए, भ्रांतियों का निवारण यह है, कि न ही श्रीराम स्वयंवर में गए थे, न ही सीता जी ने विवाह पूर्व श्री राम को देखा था, न ही कभी सीता जी ने स्वयं उस शिवधनुष को स्वयं उठाया था (यह प्रसंग भी कई जगह आता है, कि धनुष पूजन करने गई सीता जी ने उसे उठा कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखा था) , बल्कि स्वयंवर के काफी समय पश्चात श्रीराम का जनक पुरी गमन, धनुष भंग एवं जानकी जी से विवाह हुआ था।
रामायण भ्रांति निवारण शबरी के बेर

राम कथा में शबरी का प्रसंग बड़े प्रेम भाव से ब्राह्मणों द्वारा समाज के निचले वर्ग के लोगों के अपमान और फिर प्रभु श्री राम के द्वारा उसके जूठे बेर खा कर दलित के प्रति सम्मान को प्रदर्शित करता है, सदियों से यह कथा इसी रूप में प्रदर्शित की जा रही है, लेकिन क्या आप जानते हैं, कि सर्वथा प्रमाणिक, त्रेतायुगीन बाल्मिकी रामायण में यह प्रसंग नहीं है, वाल्मीकि रामायण में शबरी को मतंग मुनि की प्रिय शिष्या महान तपस्विनी कहा गया है, जिनका समस्त ऋषि मुनि बहुत सम्मान करते थे, उन्होंने श्री राम लक्ष्मण को अपने आश्रम में आने पर नैवेद्य (कंद मूल फल के रूप में यथोचित आतिथ्य सत्कार) भेंट किया, मतंग मुनि के पवित्र आश्रम के दर्शन कराए, आगे के मार्ग के बारे में जानकारी दी, एवं तत्पश्चात आज्ञा ले कर परमधाम चली गईं।

अंगद का पैर (सत्य या अतिश्योक्ति)
श्री रामचरित मानस में भी रावण की सभा में अंगद के पैर रोपने का वर्णन है, जो हम बचपन से सुनते चले आ रहे हैं, लेकिन यकीन मानिये, जब से विवेक जागृत होना शुरू हुआ, तब से कई ग्रंथों के कुछ प्रसंग, अतिशयोक्ति पूर्ण लगने लगे, लेकिन समाज मे ऐसे कई प्रसंग इतने गहरे उतरे हुए हैं , कि अगर आप किसी को सच बताना भी चाहो, तो क्या पता आपको ईशनिंदा का आरोपी बना कर सजा न दिलवा दे, खैर यह भारत है, और सभ्य शब्दों में अपनी बात रखने की सबको आज़ादी है, हमारे लेख पर भी, तर्क वितर्क का स्वागत है, परन्तु कुतर्क और कुतर्की का बहिष्कार है।
मुद्दे पर आते हैं, कई प्रसंग जो मुझे व्यवहारिक नहीं लग रहे थे, सत्यता जानने के लिये परमात्मा की प्रेरणा से ही, मैंने प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथों को जिनके आधार पर नवीन ग्रंथों की रचना हुई, उन्हें पढ़ना शुरू किया, राम चरित मानस जिस प्राचीनतम प्रामाणिक ग्रंथ "वाल्मीकि रामायण" पर आधारित है, पूरा पढ़ा, और वही सत्य सामने आया, जो परमात्मा ने इंगित किया था, यहाँ मैं तुलसीदास जी पर प्रश्न नहीं उठा रहा, कोई भी लेखक, किसी प्राचीन ग्रंथ को अगर दोबारा लिखता है, तो बहुत संभव है, अपनी छाप देता ही है, आजकल के पौराणिक सीरियल ही देख लीजिये, सत्य पता नहीं कहाँ पीछे छूट गया है इनमें, लेकिन प्राचीन ग्रन्थों से अनभिज्ञ है, वे इन धारावाहिकों की कहानियों को ही सत्य मानेंगे, और तर्क का आधार बनायेंगे। तुलसीदास जी ने उस समय जो लिखा, देश काल परिस्थिति के हिसाब से ऐसे कुछ मोटिवेशनल प्रसंग की तरह से अपनी ओर से शायद जोड़े हों, या उनकी मानस में बाद में जोड़ दिये गये हों, पता नहीं।
खैर, सत्य यह है, कि वाल्मीकि रामायण में अंगद के पैर रोपने का कहीं कोई प्रसंग नहीं है, बलशाली अंगद, दूत बन कर रावण की सभा में पहुंचे, प्रभु श्रीराम का यथावत संदेश सुनाया, रावण ने बौखला कर उन पर हमले का आदेश दिया, और अंगद अपना बल दिखा कर तमाम सैनिकों को पीट पाट कर छलांग मार कर वापस आ गये, यह प्राचीनतम, प्रामाणिक, त्रेतायुगीन वाल्मीकि रामायण में वर्णित है, और व्यवहारिक भी लगता है, आप खुद ही समझने की कोशिश करें, अगर कोई किसी को अपना सेवक बना कर भेजे, और वह अपना पैर गाढ़ कर, चैलेंज दे कर,कि पैर हटा दिया, तो उनकी पत्नी को तुम्हारे यहाँ छोड़ कर चला जाऊंगा, क्या यह किसी दूत की उद्दंडता और स्वामी की अवहेलना नहीं है, विवेक से सोचिये, तर्क करना चाहते हों, तो वाल्मीकि रामायण खुद पढ़ें, या और कोई ग्रंथ आपको प्रामाणिक लगता हो, उस आधार पर बात करें, बस शर्त यह है, कि वह ग्रंथ, वाल्मीकि रामायण के समकालीन या प्राचीन होना चाहिये।

SPIRITUAL QUOTES

1. अज्ञान से तत्त्वरूप हुआ जीव ही देह में रहता है।

2. वासना अज्ञानस्वरूप मोह से उत्पन्न हुई है, और यह मोह ही बंधन में बांधता है।

3. वासना ही बंधन है, और इसका क्षय ही मोक्ष है।

4. वासना मुक्त जीव सुख दुख में वैसे ही लिप्त नहीं होता, जैसे पानी मे कमल का पत्ता।

5.समस्त ज्ञान हो सारे शास्त्रीय कर्म हों, लेकिन वासना का ज़रा भी अणु शेष रहने पर, पिंजरे में सिंह जैसी अवस्था जीव की होती है, और वह संसार के जंगल मे फंसा रहता है।

6. परमात्मा का संकल्प ही संसार है , और संकल्प का अभाव ही परम पद है, यही मोक्ष है।

7. संसार अज्ञान से उत्पन्न होता है, और तत्वज्ञान से नष्ट हो जाता है।

8. वासना को ही चित्त कहते हैं, यही संसार का कारण है।

9. मन के विनाश से ही परमपद की प्राप्ति होती है, मुनि वासना को ही मन जानते हैं।

10. इच्छा नाम की हथिनी ही जो मन के जंगल मे रहती है, इसे धैर्य नाम के सर्वश्रेष्ठ अस्त्र से मारना चाहिए, तभी मुक्ति संभव है।

11. कर्म का आरंभ काम, क्रोध और लोभ को त्यागने के बाद ही होता है।

12. सदा स्मरण रहे कि कोई देख रहा है और शास्त्र आधारित आचरण ही करे, अन्यथा दंड प्रस्तुत है।

13. दो बातें अपना कर कोई भी सन्यासी हो सकता है, किसी से द्वेष मत करो, किसी से कोई अपेक्षा मत रखो

14. अगर आप किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखते हैं, तो सारा अस्तिव आपकी सेवा के लिये समर्पित रहता है

15. समर्पण अनुभव से आता है।

16. आप गुणी हैं, कहीं जाने की ज़रूरत नहीं, ग्रहण करने वाले खुद आयेंगे।

17. संसार सागर से उद्धार तभी संभव है, जब मनुष्य अपनी वास्तविक स्थिति "स्वभाव" में स्थित हो।

18. सृष्टि स्वप्न की ही तरह भ्रम है, और निरंतर स्वप्न के भीतर स्वप्न अनुभवों पर आधारित हैं।

19. जिसने मन को विषयों में खुला छोड़ रखा है, वह दुष्ट संसार मे डूबता ही है।

20. आत्म सम्मान का अर्थ है स्वयं में ये जांचना कि तुम खुद की नज़रों में सम्मान के लायक हो।

21. किसी को दोषी मत ठहराओ, सब खुद की ज़िम्मेदारी है

22. खुद के रंग चुनों और ज़िंदगी मे रंग भरो

23. Commit in morning, wherever I go, I will create peaceful, loving and joyful environment.

24. महत्वपूर्ण ये नहीं, कि तुम्हें किसी ने क्या दिया, महत्वपूर्ण ये है कि तुमने किसी को क्या दिया

25. जिसकी दृष्टि में जगत केवल संकल्प स्वरुप है, उस पुरुष की वह अत्यंत सूक्ष्म वासना भी धीरे धीरे विलीन हो जाती है, और वह शीघ्र ही वासना शून्य हो कर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है

26. चेतन का चेतनीय विषयों की ओर उन्मुख होना ही चित्त कहलाता है, तत्व ज्ञान चर्चा से ही इसकी वासना क्रमशः शांत होती है

27. वीर्यभ्रष्ट पुरुष कभी आत्मबली नहीं हो सकता, और न ही वह स्थाई प्रभाव डाल सकता है, वीर्य रक्षण करने वाले अर्थात वीर्यवान का पतन कभी नहीं हो सकता।

28. ब्रम्हचारी पुरुष के लिये तीनों लोकों में कुछ भी असंभव , अप्राप्त नहीं।

29. उद्दीपन और प्रतिक्रिया के बीच मनुष्य के पास प्रतिक्रिया चुनने की स्वतंत्रता होती है। - होश में जीना ही जीना है।

30. अनासक्त कर्म का अर्थ, संसार में लिप्त हुए बिना कर्मफल का त्याग कर कर्म करना, जो भी फल मिले, अनासक्त भाव, प्रसाद भाव से ग्रहण करना। तात्पर्य अपने लिये नहीं औरों के लिये कर्म करो।

31. सलाह हमेशा देश, काल, पात्र देख कर दो।

32. बात जब मुँह बदलती है, तो उसका अर्थ भी बदलता है।

33. पापी को मारने के लिये उसका पाप महाबली बन जाता है।

34. धन की तीन गति होती हैं, दान, भोग और नाश

35. अंधा होने से बदतर है, दूरदृष्टि का न होना

36. आशंका, भय और संशय, विकास के रोड़े हैं

37. अतीत के गुणगान, और भविष्य की चिंता में डूबे रहने के बजाय, सदा जागृत अवस्था में रहें।

38. मुश्किल कार्य को करने का प्रयास करें, तो आपकी निष्क्रिय पड़ी मानसिक एवं शारीरिक क्षमतायें जागृत होने लगती हैं

39. सम्पूर्ण रूप से वही जीता है, जो स्वप्न को साकार करता है

40. दूरदृष्टि विहीन लोगों की संगति में हम अपनी दिव्य अस्मिता खो देते हैं

41. वास्तविक साहसी वो हैं, जिन्हें अपने दूरगामी लक्ष्य स्पष्ट दिखते हैं

42. इस संसार में पुरुषार्थ से सबको सब कुछ मिल जाता है, अगर नहीं मिलता, तो उसके पीछे सम्यक पुरुषार्थ का अभाव होता है

43. पूर्वजन्म के पुरुषार्थ (भाग्य) और इस जन्म के पुरुषार्थ (कर्म) दोनों भेड़ों की तरह आपस मे लड़ते हैं, जो बलवान होता है, वही जीत जाता है। जो भाग्य के भरोसे बैठे रहते हैं, वे कायर, दीन और मूर्ख होते हैं

44. भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाले मनुष्यों को त्याग देना चाहिये

45. Humility commands respect, and Ego demands respect

46. आपको जो भी चाहिये, वो देना शुरू कर दो, देने में लेना समाया हुआ है।

47. खुद आगे होना हो, तो दूसरों को आगे करो

48. ॐ प्रभु का नाम है, ऐसा संकल्प करो, और सांस में ढालो, तुम परमात्मा में विलीन होना शुरू हो जाओगे और फिर तुमसे वही होगा, जो परमात्मा तुमसे कराना चाहते हैं।

49. निसंदेह अनुशासन कठिन साधना है, लेकिन यह हमें अवनति और पतन की गहरी खाई में गिरने से बचाने वाली मज़बूत दीवार है।

50. हमारा शरीर कभी भी दूसरे के पैरों पर आगे नहीं बढ़ सकता, अतः आत्मनिर्भर बनें।

51. एक चींटी भी शरीर से ज्यादा बोझ ले कर आगे बढ़ती है।

52. दरिद्रता जीवन के लिये अभिशाप है, सम्पन्नता ही जीवन का सौंदर्य है।

53. आलस्य दरिद्रता लाता है, और पुरुषार्थ सम्पन्नता।

54. किसी पर आश्रित होने का अर्थ आलसी, कामचोर और गैर जिम्मेदार होना है।

55. नहीं करने वाले के लिये हर कार्य कठिन एवं असंभव होता है, और करने वाले के लिये, हर कार्य सरल एवं संभव।

56. वही ज्ञान दूसरों को दें, जिस पर आप स्वयं चलते हैं,अन्यथा आपके दिये ज्ञान का कोई मोल नहीं।

57. शक्ति को सदा लोकहित में प्रयोग करना ही राम होना है।

58. जीवन पूरी तरह यूज़ करने (जिये जाने)  के लिये है, बचाने के लिये नहीं, मरी हुई चीजें ही प्रिजर्व कीजाती हैं, जीवित नहीं।

59. जो देने की इच्छा रखे, उसे देवता कहते हैं।

- Sajag Prahari Awakening