INSTITUTE OF HOLISTIC & COSMIC STUDIES
SAJAG PRAHARI MINDFORCE
OUR COURSES ARE AVAILABLE ONLINE & AT OUR LIFE EMPOWERMENT CENTRES
KNOW, WHAT 99.99% PEOPLE DON'T KNOW
Our Mission is to empower Society with our cosmic Spiritual & religious courses. Our solutions are derived from eternal ancient wisdom, vedic knowledge, intense spiritual practices and cosmic impacts on life. We help you to stay away from wrong knowledge & belief system about religious, cosmic & spiritual myths and empower you with awakened and blissful life. - Alok Sir
FOR COURSES AND ADMISSION ENQUIRY, KINDLY MESSAGE "IHCS ADMISSION" TO OUR WHATSAPP HELPLINE: 9670999924.
ARTICLES BY ALOK SIR
The society has given the name of religion to sects, we experience as many sects as religions, religion is not dependent on any particular sect, but it is just a way of attaining the supreme form of one's own soul, "Supreme Soul", and nothing else. Whatever anomalies are prevalent in the society in the name of religion, there is only one reason for it, lack of knowledge. There are not many religions, there is only one, that path which makes you face to face with God. Religion is that which is created by God for the upliftment of nature, humanity and public welfare and not for hurting anyone. Which we call religion, actually they are sects, Hindu, Muslim, Sikh Christian, Parsi, are not religion they are just communities or groups with some specific traditions (way of living). Evils can happen anywhere, As far as that one religion is concerned, that is "Sanatan" means eternal, which was never born, cannot die, which we know by the name of "Sanatan Dharma", but in today's era, it is rarely followed. Religion never teach bigotry, pride. Once we look at the nature around us, air, water, sun, all are following their own religion, without any discrimination, Hindu has less sunlight, Muslim has more, is it so ? It is only human, who is entangled with arrogance in the whirlpool of ignorance, not ready to come out from prejudice and wrong belief system.
समाज ने अपने अपने संप्रदायों को ही धर्म का नाम दे दिया है, जितने संप्रदाय उतने ही धर्म। वास्तविक धर्म किसी संप्रदाय विशेष का मोहताज़ नहीं, बल्कि परमात्मा, अर्थात अपनी ही आत्मा के परम स्वरूप "परम आत्मा" को प्राप्त करने का मार्ग या कहें आचरण मात्र है। धर्म के नाम पर जो भी विसंगतियाँ समाज में व्याप्त हैं उसका एक ही कारण है, ज्ञान का अभाव।
अतः परम भाव में स्थिति सद्गुरु की शरण सदा ही कल्याणकारी है। धर्म तो वह मार्ग है, जो आपको परमात्मा का साक्षात्कार करा दे, धर्म वह है जो परमात्मा की बनाई प्रकृति, मानवता और लोक कल्याण के उत्थान के लिये हो, न की किसी को कष्ट देने के लिये। जिन्हें हम धर्म कहते हैं, असल में वे संप्रदाय हैं, हिंदू, मुस्लिम, सिख ईसाई, पारसी इत्यादि धर्म नहीं, संप्रदाय हैं। कुरीतियाँ कहीं भी हो सकती हैं, अगर हम जानवरों की क़ुर्बानी का विरोध करते हैं, तो बलि प्रथा का भी होना चाहिये, बाल विवाह गलत है, देवदासी, सती प्रथा ग़लत थी, उसी प्रकार तीन तलाक़ कुप्रथा का अंत भी आवश्यक था, इसमें किसी तर्क की गुंजाईश कहाँ ?
रही बात उस एक धर्म की, तो वह शाश्वत सनातन अर्थात अनादि, जो न कभी पैदा हुआ, न मर सकता है, जिसे हम सनातन धर्म के नाम से ही जानते हैं, यह वह ब्रह्मांडीय कानून है, जिस पर संपूर्ण सृष्टि, अनुशासित रूप में लयबद्ध है। धर्म कभी कट्टरता, घमंड नहीं सिखा सकता, एक बार आप अपने चारों ओर प्रकृति पर ही नज़र दौड़ा कर देख लें, हवा, पानी, सूर्य सब अपने अपने धर्म का पालन कर रहे हैं, बिना किसी भेदभाव के। हिंदू को धूप कम मुस्लिम को ज्यादा, ऐसा नहीं है। क्या आप किसी नवजात शिशु को देख कर उसका संप्रदाय (धर्म कहने की भूल नहीं करनी चाहिये) बता सकते हैं?
नादान मानव, सदियों से, अज्ञानता के भंवर में अकड़ से साथ उलझा हुआ है, पूर्वाग्रह से ग्रसित है, बाहर निकलने को तैयार ही नहीं। जिस दिन यह पूर्वाग्रह के अँधेरे का दामन छोड़ देगा, ज्ञान का प्रकाश उस तक पहुँचने का मार्ग बना लेगा।
Om, this monosyllabic mantra sounds as if it introduces the whole creation or say the universe:
This divine mantra, equipped with the symbols A, U and M i.e. Akar (Brahma), Ukar (Vishnu) and Makara (Shiva), defines Aadi, Madhya and Maun (Anta or say Anant), in the pronunciation of Aum, A is pronounced from the heart country, ie origin or say Brahma, U pronounced from the palate i.e. Madhya means Lord Vishnu is revealed, M is uttered with closed lips, resonating naad (tone), followed by halanta and the subtle point beyond it leading to silence, that is, Lord Mahadev introduces and realizes the infinity of Shiva.
This sacred monosyllabic mantra introduces the entire universe i.e. divine power, if you pay attention, you will find that the whole nature, everything around you is chanting Om, this sound is heard in every sound!! Om is the symbol of God.
ॐ, यह एकाक्षरी मंत्र लगता है जैसे सारी सृष्टि या कहें ब्रह्मांड से परिचय कराता है:
अ, उ और म यानि अकार (ब्रह्मा) उकार (विष्णु) और मकार (शिव) प्रतीकों से सुसज्जित यह ईश्वरीय मंत्र, आदि, मध्य और मौन (अंत या कहें अनंत) को परिभाषित करता है, ॐ के उच्चारण में अ का उच्चारण हृदय देश से, अर्थात उत्पत्ति या कहें ब्रह्मा को दर्शाता है, उ का उच्चारण तालू से अर्थात मध्य अर्थात पालनहार भगवान विष्णु को प्रकट करता है, म का उच्चारण होठों को बंद करके होता है, गुंजायमान नाद (स्वर), इसके बाद हलंत और उसके पार सूक्ष्म बिंदु मौन की ओर ले जाता है,अर्थात भगवान महादेव शिव की अनंतता का परिचय और अनुभूति देता है।
यह पवित्र एकाक्षरी मंत्र सम्पूर्ण ब्रह्मांड अर्थात दैवीय सत्ता का परिचय देता है, अगर ध्यान दें तो पायेंगे कि सारी प्रकृति, आपके आस पास मौजूद हर वस्तु ॐ का जाप कर रही है, हर ध्वनि में यह ध्वनि सुनाई देती है, यदि आप चेतना की उच्चतर अवस्था में हैं, तो आपको यह धवनि अनाहत नाद के रूप में सुनाई देती है। परमात्मा का परिचायक है ॐ।
According to Vedas and mythology, God has given his first introduction to Brahma in the form of Ardhanarishwar, this form is said to be of Shiva and Shakti, that is, by the inspiration of Shiva and Shakti, or say, the existence of this entire creation is due to holy coincidence. Lord Shiva has also been called Rudra, wherever there are Rudravatar places i.e. temples on earth, Mother Shakti is also present everywhere, Shiva and Shakti are worshiped together.
Mahadev's "Shiv Shakti" form is the symbol of ultimate energy, he has given equal importance to male power as well as female power, in the beginning of the creation itself, in his Ardhanarishwar form, has told that Shiva is incomplete without Shakti, and without Shiva, Shakti.
The existence of the universe is possible only in the form of Shiva-Shakti, and the Shivling reflects this form of Shiva Shakti, the universe or rather the power and energy of the entire creation, tells the origin as well as the merger. Today we talk about the equality of women, but this worshipable symbol tells that according to Mahadev Shiva, without women's power, there is no existence of creation, so women are always worshipable.
Shiva's worship cannot be done without Shakti, this is the message of Shivling to the universe.
वेदों और पौराणिक कथाओं के अनुसार परमात्मा ने अपना प्रथम परिचय ब्रह्मा को अर्धनारीश्वर के रूप में दिया है, यह रूप शिव और शक्ति का कहा जाता है, अर्थात शिव और शक्ति की प्रेरणा से या कहें पवित्र संयोग से ही इस सम्पूर्ण सृष्टि का अस्तित्व है। भगवान शिव को रुद्र भी कहा गया है, पृथ्वी पर जहाँ जहाँ भी रुद्रावतार स्थान अर्थात मंदिर हैं, हर जगह माँ शक्ति भी उपस्थित हैं, शिव और शक्ति की उपासना साथ होती है।
परम ऊर्जा का प्रतीक है महादेव का "शिव शक्ति" रूप, उन्होंने पौरुष सत्ता के साथ ही नारी सत्ता को भी उतना ही महत्त्व दिया है, सृष्टि के आरम्भ में ही,अपने अर्धनारीश्वर रूप से बताया है कि बिना शक्ति के शिव अधूरे हैं, और बिना शिव, शक्ति।
ब्रह्मांड का अस्तिव शिव-शक्ति रूप से ही संभव है, और शिवलिंग इसी शिव शक्ति रूप को प्रदर्शित करता है, ब्रह्मांड या कहें सम्पूर्ण सृष्टि की सत्ता और ऊर्जा को प्रदर्शित करता है, उत्पत्ति भी बताता है और विलय भी। आज हम नारी की बराबरी की बात करते हैं, लेकिन यह पूज्य प्रतीक बताता है कि महादेव शिव के अनुसार नारी शक्ति के बिना तो सृष्टि का अस्तित्व ही नहीं, अतः नारी सदैव पूज्य है।
शिव की आराधना शक्ति के बिना नहीं हो सकती, यही शिवलिंग का सृष्टि को संदेश है।
Untouchability and discrimination has been the only reason for the disintegration of Sanatan Dharma and global ruin. Global destruction because every sect, caste, sub-caste, all that you call "religion" have originated from Sanatan Dharma, because of age-old mental untouchability, who thought they were weak, in the race to survive and prove themselves superior to others, tried to harm their superior, increase their production, and cause global ruin, And 'eternal eternal' given by God; Which is the only "religion" of the universe, went on diminishing, and today is taking its last breath in the abundance of demonic powers.
But whenever there has been a great loss of religion, there have been incarnations, and maybe something like this will happen again. In the effort to establish religion, this is a continuous war, which is known as Devasur Sangram, has always been happening, and will continue to happen forever. We all can know our tendencies by self-realization, be they divine, or demonic, test them, then release the battle.
You fight with the demonic powers sitting in yourself, and also with the demonic powers of others in public welfare, this is the war.
छुआछूत, अस्पृश्यता एक मात्र कारण रहा है, सनातन धर्म के विघटन और वैश्विक बर्बादी का। वैश्विक बर्बादी इसलिये, कि हर संप्रदाय जिसे आप "धर्म" कहते हो, जातियां उपजातियाँ सभी सनातन धर्म से ही उत्पन्न हुये हैं, युगों युगों से चली आ रही, मानसिक अस्पृश्यता की वजह से, जिन्हें लगा कि वो कमज़ोर हैं, रेस में टिके रहने और अपने को दूसरे को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ में अपने से श्रेष्ठ को नुकसान पहुँचाने, अपनी पैदावार बढ़ाने, और वैश्विक बर्बादी का कारण बनने के प्रयास में लग गये, एवं परमात्मा द्वारा प्रदत्त 'शाश्वत सनातन; जो ब्रह्माण्ड का एकमात्र "धर्म" है, क्षीण होता चला गया, और आज आसुरी शक्तियों के बाहुल्य में अंतिम सांसे ले रहा है। लेकिन जब जब धर्म की बड़ी हानि हुई है, अवतार हुये हैं, और शायद फिर कुछ ऐसा ही हो। धर्म स्थापना के प्रयास में यह तो निरंतर अनवरत चलने वाला युद्ध है, जिसे देवासुर संग्राम के नाम से जानते हैं, सदा होता रहा है,और सदा होता रहेगा।
हम सभी अपनी प्रवत्तियों को स्वयं ही आत्मसाक्षात्कार से जान सकते हैं, ये दैवीय हैं, या आसुरी, परीक्षण करें, फिर जारी करें जंग।
आप खुद में बैठी आसुरी शक्तियों से भी लड़ते हैं, और लोक कल्याण में दूसरों की आसुरी शक्तियों से भी, यही युद्ध है।
The ultimate sense of the soul is the Supreme Soul, that is, you are not the body, you are the soul, to attain the Supreme, there is a need for self-interview. The body sleeps, but the soul is always awake, gives vibrations to the heart, gives energy to the body to work, through the purification of its intellect (which is the form of Brahma itself), self-realization and attainment of divine feeling is possible, this is also the goal of life.
The path of hatha yoga is the best for self-realization, hatha yoga is nothing else, keeping all our senses disciplined, moving forward on the path of "destined action" for public welfare. , Or after many births, the attainment of this goal is inevitable, this is salvation.
आत्मा का परम भाव ही परमात्मा है, अर्थात् आप शरीर नहीं, आत्मा हैं, परमत्व प्राप्त करने के लिये आवश्यकता है, आत्म साक्षात्कार की। शरीर सोता है, लेकिन आत्मा सदैव जागती है, ह्रदय को स्पंदन देती है, शरीर को कार्य करने की ऊर्जा देती है, अपनी बुद्धि (जो ब्रह्मा का ही स्वरूप है), इसकी शुद्धि के द्वारा आत्म साक्षात्कार और परमात्म भाव की प्राप्ति संभव है, यही जीवन का लक्ष्य भी है।
हठ योग का मार्ग सर्वोत्तम है आत्मदर्शन के लिये, हठ योग कुछ और नहीं, अपनी समस्त इन्द्रियों को अनुशासित रख कर लोक कल्याण हेतु "नियत कर्म" के मार्ग पर आगे बढ़ना है, एक बार हठ योग प्रारंभ हो गया, भले प्रारंभिक अल्प संकल्प एवम् प्रयास के साथ ही सही, बार बार गिरने, संभलने के बाद भी,'आत्मा', "परमात्मा" में विलीन हो ही जायेगी, क्योंकि एक बार प्रारंभ होने पर यह संकल्प और प्रक्रिया मिट नहीं सकती, आगे बढ़ते हुये, इस जन्म में ही, या फिर अनेक जन्म जन्मांतरों के बाद, इस लक्ष्य की प्राप्ति अपरिहार्य है, यही मोक्ष है।
मन के मुख्यतः तीन भाग होते हैं और इसे कंप्यूटर की मेमोरी के टर्म्स में भी समझा जा सकता है:
1. सचेतन ( रैम)
2. अर्ध चेतन (कैश मेमोरी)
3. अवचेतन (हार्ड डिस्क)
अवचेतन मन एक डेटा कलेक्शन सेंटर की तरह है, जैसे कंप्यूटर की हार्ड डिस्क, यहाँ डेटा क्रमशः सचेतन मन से अर्धचेतन मन और फिर अवचेतन में जा के स्टोर हो जाता है, किसी भी काम को बार बार किया जाये, वह हमारी आदत बन जाती है, और हर आदत अवचेतन में स्टोर हो जाती है, अर्ध चेतन मन कंप्यूटर की कैश मेमोरी की तरह है, जिसमें अवचेतन मन से बार बार यूज़ होने वाला डेटा अर्धचेतन से होता हुआ सचेतन की ओर ट्रेवल करता रहता है, और फास्टर प्रोसेसिंग के लिये स्टोर रहता है, जिस पर दिमाग एक प्रोसेसर की तरह कार्य करता है, सचेतन मन कंप्यूटर की रैम की तरह है, जिसपे बुद्धि या कहें दिमाग द्वारा प्रोसेसिंग होती है।
इसका अर्थ यह, कि हमारा मन बुद्धि का पूरा सिस्टम डेटा अर्थात मेमोरी पे कार्य करता है, गौर कर के देखें, तो पायेंगे, कि मन सदा वहीँ जाता है, जो कुछ आपने अपने जीवन में देखा, सुना, महसूस किया होता है, मन की यही तय सीमायें हैं, अर्थात मन एक मेमोरी के अलावा और कुछ नहीं, यही मेमोरी हमारे पूरे व्यक्तित्व और जीवन का निर्धारण करती है।
अतः मन पर नियंत्रण के लिये परम आवश्यक है कि जीवन को बहुत ही ध्यान पूर्वक जिया जाये, डेटा कलेक्शन की क़्वालिटी पर विशेष ध्यान अर्थात, क्या देख सुन बोल देख रहे हैं, खा रहे हैं, विशेष ध्यान रखा जाये, क्योंकि यही डेटा हमारे जीवन की दिशा और दशा निर्धारित करता है। अतः अपने मन को ध्यान पूर्वक सही खुराक (डेटा) दें, और कुछ ही दिनों में फर्क देखें।
विचार कीजिये, कि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में हम अपने बच्चों और आने वाली पीढ़ियों को क्या दे रहे हैं, हर व्यक्तित्व खुद में अलग होता है, उज्वल भविष्य की नई और अपार सम्भावनायें लिये, हम कौन होते हैं उसका भविष्य खुद के ढर्रे पे चलाकर निर्धारित करने वाले, परमात्मा उसे कुछ बनने के लिये भेजता है, और हम उसे अपने जैसा ही बना देते हैं, किसी नवीन रचना को जन्म लेने से पहले ही दबा देते हैं। गौर कीजिये, जितने भी सफल वैज्ञानिक, लीडर्स, महापुरुष हुये हैं, वो अपने दिल की आवाज़ पर चले हैं, लाख विरोधों, आलोचनाओं के बावज़ूद हज़ारों असफलताओं के बावज़ूद फिर खड़े हो कर लक्ष्य की ओर निरंतर बढे हैं और सफ़ल हुये हैं, इतिहास का हिस्सा बने हैं।
हमें तय करना होगा, कि हम खुद को और अपनी भावी पीढ़ी को कुछ लोगों द्वारा तय की गई फैक्टरी से निकला आठ से 12 घंटे की नौकरी कर रिटायरमेंट ले कर अंत में चार कंधों पर जाने वाला एक प्रोडक्ट बनाना चाहते हैं, या वो जो हम या वो बनना चाहता है, बनाना चाहते हैं।
हमारा कार्य है, उनकी रुचि और क्षमता को पहचान कर, उन्हें उनके लक्ष्य में सफ़ल होने के लिये सदा प्रेरित करना, अपना सर्वस्व लगा देना, न कि गुलाब के पेड़ को आम का पेड़ बनाने की कोशिश करना
अभी भी देर नहीं हुई है, जब जागें, तभी सवेरा, हो सकता है, आपका नौनिहाल, इंतज़ार में हो, कि मेरे माता पिता कभी तो मेरे दिल की आवाज़ सुनेंगे. यह दिन आज का भी हो सकता है, देखें, हो सकता है, आपके बच्चे में भी शायद कोई आइंस्टीन, तेंदुलकर या धीरू भाई अंबानी छिपा हो।।
विज्ञान भी यह मानता है, कि सारी सृष्टि ऊर्जा का नृत्य मात्र है और कुछ नहीं, हमारे ऋषि मुनि, अपनी यौगिक दृष्टि से यह बहुत पहले जान चुके थे, अथाह ज्ञान के मकड़ जाल में उलझने के बजाय इंसान सिर्फ अगर इतना ही समझ ले, कि चराचर जगत की हर वस्तु (सजीव, निर्जीव), ऊर्जा से ही निर्मित है, और इस ऊर्जा का स्थानांतरण मात्र होता है, न ही ऊर्जा कम होती है, और न ही बढ़ती है, यह ऊर्जा तमो, रजो और सतोगुण से युक्त चैतन्य है, आपकी और आपके आस पास के लोगों की ऊर्जा जैसी होगी, वैसी ही वाइब्रेशन आपके आस पास, घर, मोहल्ले, समाज में उत्पन्न होती हैं, और वैसा ही प्रभाव आपके आसपास और संपूर्ण वातावरण में पड़ता है, अतः हमें सृष्टि के संचालन में अपनी भागीदारी को समझना चाहिये, ऊर्जा में तमोगुण की अधिकता अर्थात नकारात्मकता होगी, तो पाप बढ़ेगा, सतोगुण की अधिकता अर्थात सकरात्मकता होगी तो पुण्य, बहुत आसान है इसे समझना, हर कर्म और विचार, ऊर्जा उत्पन्न करता है, अतः सचेत रहें, सदा अपने विचारों, और कर्मों के प्रति, परिणाम से बच नहीं सकते, भगवान सब देख रहा है, इसका अर्थ यही है, कि आप उस ऊर्जा के भीतर ही हैं, उसका ही भाग हैं, आप की कोई भी करनी छिप नहीं सकती, अर्थात भला बुरा फल दे कर ही जायेगी, योनियों में भटकाव, स्वर्ग, नर्क, बीमारी, दुर्घटना, हर तरह का सुख, दुख, यह सब हम ही उत्पन्न कर रहे हैं, व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से, फिर दोष किसको देते हैं, बस इतना ही सरल सिद्धांत है सृष्टि के संचालन का, यही ऊर्जा, भगवान, या शैतान है, जैसा बना लो वैसा ही, आत्मबोध से ऊर्जा प्रबंधन में प्रवीणता आ सकती है, जिसे हम जीवन जीने की कला कहते हैं, यह आत्मबोध, योग, प्राणायाम, सद्गुरु के मार्गदर्शन से अभ्यास के द्वारा प्राप्त हो सकता है।
अगर मैं कहूं कि 90% लोग वर्ण व्यवस्था का अर्थ नहीं समझते, तो शायद आप यकीन नहीं करेंगे, गीता में भी भगवान श्रींकृष्ण ने कहा है, कि मैंने जातियों को नहीं, गुण और कर्मों को बांटा है "गुण कर्म विभागशः", फिर यह जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था कब और किसने शुरू की, जाहिर है, इसी कल्पित वर्ण व्यवस्था की वजह से सैकड़ों सालों से हिंदू संप्रदाय में असम्मान, उपेक्षा झेल रहा विशाल जनमानस दूसरे संप्रदायों के निर्माण में और उनसे जुड़ने में लग गया, जहां उसे उपेक्षा नहीं, बराबरी का सम्मान मिले, देखते ही देखते असंख्य संप्रदाय खड़े हो गए, जिन्हें हमने धर्म का नाम दे दिया, सत्य यह है, कि ये जातियों होती ही नहीं, असुर, देव, यक्ष, नाग, किन्नर, गंधर्व, मानव, ये सब जातियों के प्रकार थे, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये नहीं, जो ब्रह्म को जानता है, वह ब्राह्मण है, इसी क्रम में नीचे की ओर योग्यता वालों को क्षत्रिय, वैश्य, और अत्यंत अल्प ज्ञान वाले को शूद्र की संज्ञा दी गई (संदर्भ भगवद गीता), असुर जाति का रावण ब्रह्म को जानता था, इसीलिए ब्राह्मण कहा गया, विश्वामित्र, जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था के आधार पर क्षत्रिय थे, लेकिन मानस में विप्र संबोधित कहे गए, क्योंकि वह भी ब्रह्म को जानते थे, वेदव्यास ने भी योग्यता के आधार पर अपना शिष्य सूत पुत्र रोमहर्षण जी को बनाया, उनका ऋषि मुनियों द्वारा सम्मान जग प्रसिद्ध है। कई दिन लग जायेंगे, इस विषय पर लिखते, बस हमें समझना इतना ही है, कि जिन जातियों या वर्णों की हम बात करते हैं वह परमात्मा ज्ञान में हमारी योग्यता का स्तर मात्र है, न कि हमारा जन्म आधारित ब्राह्मण होने का अहंकार या शूद्र होने पर नीचता का भाव, शूद्र यदि ब्रह्मज्ञानी है, तो ब्राह्मण है, और अगर कथित ब्राह्मण परमात्म ज्ञान से परिचित नहीं है, और उस मार्ग पर चलना प्रारंभ करता है, तो उसे अपने से योग्य गुरु के पास जाना होगा, जिन्हें हम योग्यतानुसार ऊंचे वर्णों का कहेंगे, उनकी सेवा करनी होगी, ज्ञान प्राप्त करना होगा, और क्रमशः वैश्य, क्षत्रिय, और ब्रह्म को जानकर वास्तविक ब्राह्मण हो जायेगा।
कहा जाता है कि जो लोग किसी सिद्धि प्राप्ति की लालसा से चक्र भेदन कुंडलिनी जागरण जैसी क्रियाएँ करते हैं, उन्हें शारीरिक और मानसिक तनाव व् समस्यायें हो जाती हैं, कारण, कि उनका शरीर व् मन मस्तिष्क इस लायक नहीं होता जो उस ऊर्जा का प्रवाह झेल सके, कुछ गुरु शक्तिपात के द्वारा भी ऐसी कुछ अनुभूतियाँ कराने में सक्षम होते हैं, लेकिन यह मार्ग खतरनाक है, अतः पहले अपने शरीर और मन को इस लायक बनाना चाहिये जो चक्र भेदन कुंडलिनी जागरण के लिये उठने वाली ऊर्जा को झेल सके।
अतः साधक को निम्न पञ्चमार्ग अपनाना चाहिये:
1. सात्विक भोजन (जैसा अन्न वैसा तन एवं मन)
2. अहिंसा - अर्थात मन एवं कर्म से सात्विकता (किसी का भी अहित किसी भी प्रकार से न करने की चेष्टा, विचार भी न लाना)
3. सत्य (सत्य का अर्थात सत्य बोलना नहीं, जो भी समाज के हित में है, ऐसा कार्य करना
4. इंद्रिय संयम - इंद्रियों के दास न बन कर उन्हें अपना दास बनाना
5. दान - याद रखें, प्रसिद्धि की लालसा दे किया गया दान कभी शुभ फल नहीं देता, दान गुप्त होना चाहिये, प्रसिद्धि की लालसा अहंकार की कामना है, जो वर्जित है
इन सद्गुणों को ब्रह्मचर्य भी कहते हैं - अर्थात ब्रह्म जैसी चर्या (कार्य)
अब बात आती है, कि इस दुरूह मार्ग पर चला कैसे जाये, तो याद रखें निरंतर अभ्यास से ही यह सम्भव है।
साधक को चाहिये कि सबसे पहले वह तामसिक भोजन को त्याग कर सात्विक एवं संयमित आहार ग्रहण करना शुरू करे, प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में योग एवं प्राणायाम का अभ्यास शुरू करे, अपशब्द, गलत बोलने, और नकारात्मक विचार एवं माहौल से खुद को बचाये, यथोचित कर्म जो आपके परिवार और समाज दोनों के लिये उपयुक्त हो, उसमें ईमानदारी से संलग्न रहे, किसी का एक भी पैसा चोरी या गलत मार्ग से लेने की कल्पना भी न करे
अगर आप इस मार्ग पर चल पड़ेंगे, तो आप को स्वतः ही आत्मा परमात्मा, कुंडलिनी जागरण, चक्र भेदन का ज्ञान एवं अनुभव होने लगेगा, और आप स्वयं को छठी इंद्रिय के जागृत होने का अनुभव दे पायेंगे, जिसे हम शिव का तृतीय नेत्र भी कहते हैं।
एक अभ्यास तुरंत शुरू करें: मन को शांत रखते हुये उगते हुये सूर्य को कुछ देर एकटक देखते हुये उन्हें गायत्री मंत्र का जाप कर प्रणाम करें, कोशिश करें, सुबह जितना संभव हो, सूर्य को देखें - एक सप्ताह में ही आपको अपने भीतर सकारात्मक परिवर्तन नज़र आने लगेंगे।
ANSWERS FROM ALOK SIR
हमने बहुत सी मशीनें बनाईं, उन्हें चलाना सीखा, लेकिन "मानव" जो, इस पृथ्वी की सबसे अद्भुत और ताकतवर मशीन है, उसे बगैर जाने चला रहे हैं, अगर हम इस मशीन को जान लें, तो हम अपने जीवन का उद्देश्य निश्चय ही जान पायेंगे, परमात्मा इंतज़ार कर रहे हैं, कि कब उनकी बनाई यह मशीन उनके निर्देशों पर चलेगी। धर्म कुछ और नहीं, ईश्वरीय निर्देश ही हैं, जिन्हें समझने के लिये मानव को स्वयम् में धैर्यपूर्वक झाँकना होगा, फिर आप पायेंगे, कि गीता जिसे " कर्म" कहती है, प्रारम्भ हो गया है। जिस दिन आप यह जान लेंगे, कि आप इस ब्रह्मांड का एक अंश मात्र हैं, और आप जो भी, जैसा भी कर्म करते हैं, उससे संपूर्ण सृष्टि प्रभावित होती है, आप पाप पुण्य की परिभाषा, और जीवन का उद्देश्य भी जान लेंगे, बस आवश्यकता है, धैर्य पूर्वक सद्गुरु के मार्गदर्शन में सतत् अभ्यास की। बिन गुरु ज्ञान कदापि संभव नहीं।
तीसरी आँख कोई अतिरिक्त आँख नहीं, बल्कि समझ का उच्च पहलू है, हमारी दो आँखें स्थूल जगत को देखती हैं, और तृतीय नेत्र खुलने का अर्थ है, समझ के नये आयाम को प्राप्त करना, वह समझ जो यथार्थ देखती है, स्थूल जगत से परे।
"भग" का अर्थ है इस सृष्टि में व्याप्त समस्त श्री (ऐश्वर्य) और सुख का आधार, और "वान" का अर्थ है, स्वामी, अर्थात ब्रह्माण्ड में व्याप्त समस्त सुख संपदा के स्वामी ही "भगवान्" हैं, वैराग्य सुख की उच्चतम श्रेणी है, भग का अर्थ योनि होता है और वान का अर्थ मालिक, जैसे धनवान - धन का मालिक, बलवान - बल का मालिक, उसी प्रकार भग का मालिक - भगवान, संपूर्ण जगत की उत्पत्ति योनि से ही होती है, जैसे संपूर्ण जीव जंतु जगत पृथ्वी से उत्पन्न है, यह पृथ्वी या कहें प्रकृति भी एक योनि है, जिससे संपूर्ण सुख हमें प्राप्त होते हैं, कहने का तात्पर्य हर संपूर्ण ज्ञात जगत के सुख का आधार योनि "भग" है, और उसका स्वामी भगवान।। भगवान और ब्रह्म दोनों अलग अलग बातें हैं, भगवान वो जो सुख के स्रोत का नियंता है, समर्थ है। जैसे बच्चे के लिये उसका पिता भगवान, नारी के लिये उसका पति भगवान, अर्थात एक ऐसी समर्थ शक्ति जो आपके सुख के लिये वह कर सकती है, जो आप की क्षमता से परे है, वह भगवान है। भगवान हर जगह है, यानि इस जगत में ऐसा कुछ भी नहीं जो सुख देने में असमर्थ हो, बिना किसी काम हो, यह सिद्ध करता है कि भगवान अर्थात वह समर्थ शक्ति हर कण में विद्यमान है, आपका पालन पोषण कर रही है।
प्रथम आराध्य "श्रीगणेश" सृष्टि की सम्पूर्ण व्यवस्था और गुणों को प्रदर्शित करते हैं, इस आदर्श व्यवस्था और गुणों को हर जीव को धारण करना चाहिये, श्रीगणेश "हिरण्यगर्भा" रूप में संपूर्ण सृष्टि को धारण करने वाले एवं व्यवस्थापक हैं।
इनके बड़े कान उत्तम श्रोता के गुणों को, सूँड़ एवं दन्त चरम क्रियाशीलता एवं व्यावहारिक विराट शक्ति को, सूक्ष्म नेत्र पैनी दृष्टि को, उदर अपने गर्भ में हर गुण और दोष युक्त सम्पूर्ण सृष्टि के निरंतर विस्तार को संयम के साथ धारण करने की क्षमता को, शस्त्रों से सुसज्जित हाथ सुरक्षा के दायित्व निर्वहन को, विश्राम, चिंतन या फल खाने की मुद्रा में हाथ सृष्टि के पोषण को, एवं अभय दान मुद्रा में हाथ, श्रष्टि को अपने संरक्षण में सदा भयमुक्त रहने का वरदान एवं शिक्षा देता है। सृष्टि व्यवस्था के सुगम संचालन के लिये हर जीव को यही गुण अपनाने चाहिये, ॐ स्वरूप गणपति का यही संदेश है।
ॐ, संपूर्ण सृष्टि का आधार है, वह प्रथम तत्व जिससे सम्पूर्ण सृष्टि अस्तित्व में आई, अगर ध्यान दें तो पायेंगे कि ब्रह्माण्ड में हर कण ॐ की ही ध्वनि उत्पन्न कर रहा है!! ॐ ही प्रथम नाद है, यह सृष्टि की व्यवस्था अर्थात "भगवान श्री गणेश" को भी निरूपित करता है, अर्थात भगवान श्रीगणेश ही ॐ हैं, जो सृष्टि के व्यवस्थापक माने जाते हैं।
वर्तमान परिपेक्ष्य में , जिसे हम कलियुग कहते हैं, अगर विचार करें, तो पायेंगे, कि अर्जुन एवम् श्रीकृष्ण हमारे स्वयं के भीतर सदा विद्यमान हैं, हमारा संशय युक्त, मोह, माया, आडम्बरों में जकड़ा मन ही अर्जुन है, और उसके सारथी बन कर सदा ही श्रीकृष्ण, हमारी ही जागृत बुद्धि के रूप में विद्यमान हैं!! देर सिर्फ बुद्धि को जागृत अवस्था में स्थापित करने की है, सद्गुरु के मार्गदर्शन में यह संभव है।
अध्यात्म का अर्थ है, आत्म अध्ययन, जैसे आप किसी मशीन का मैनुअल पढ़े बगैर उसे चलाना नहीं सीख सकते, वैसे ही आध्यात्म के बिना आप जीना कैसे सीख सकते हैं ? आध्यात्म ही मैन्युअल है हमारा, इसे अवश्य पढ़ें।
अगर आप सर्वोत्तम आचरण से युक्त हैं, तो आप सतयुग में हैं, अगर कर्म दूषित होते चले गये, तो आप क्रमशः त्रेता, द्वापर और तत्पश्चात कलयुग में प्रवेश करते हैं!! युग परिवर्तन कहीं बाहर नहीं, आपके भीतर ही होता है, हर पल हर रोज़, पहचानें, आप किस युग में हैं।
शरीर से ऊपर इंद्रियाँ हैं , इंद्रियों से ऊपर मन, मन से ऊपर बुद्धि और बुद्धि से भी ऊपर आत्मा है, मतलब आप!! आप परमात्मा का ही अंश हैं, जिस दिन आपकी आत्मा, परम भाव में प्रवेश कर गई, आप परमात्मा हो जायेंगे!! सद्गुरु की कृपा और निरंतर अभ्यास से आत्म साक्षात्कार संभव है।
"सर्वस्व" में "स्व" निहित है, लोक कल्याण, अर्थात सर्वस्व के लिये कर्म करने से स्व अर्थात स्वयं का कल्याण निश्चित है।
भाग्य का निर्माण हमारे ही कर्म करते हैं, जो पहले किया आज भोग रहे, और जो अब कर रहे, आगे भोगना निश्चित है!! इस सृष्टि के नियमानुसार जो हम देंगे, वापस वही मिलेगा, बबूल का बीज बोने से कांटे ही मिलेंगे, आम के फल नहीं, फिर भाग्य को कोसना कैसा
आपकी ऊर्जा जैसी होगी, वैसी ही वाइब्रेशन आपके आस पास उत्पन्न होती हैं, और वैसा ही प्रभाव आपके आसपास और संपूर्ण वातावरण में पड़ता है, अतः हमें सृष्टि के संचालन में अपनी भागीदारी को समझना चाहिये, ऊर्जा नकारात्मक होगी, तो पाप बढ़ेगा, सकरात्मक होगी तो पुण्य, बहुत आसान है इसे समझना।
भगवद् गीता के अनुसार दीर्घसूत्री एवं संशयात्मक बुद्धि अर्थात् ( लेट लतीफी, टाल मटोल, कल कर लेंगे एवं करें न करें ) इत्यादि तामसी गुणों को प्रदर्शित करती है, एवं आपके कर्म में बाधक बनती है।
इस नश्वर संसार रूपी पेड़ की पत्तियों, फूलों, फलों, तने में उलझने एवं इनको भजने, या इनसे सम्मान की अपेक्षा से क्या लाभ, मूल रूपी परमात्मा का भजन एवं उनके अनुसार आचरण ही मुक्ति मार्ग है।
मोह ही परम व्याधि है, और हर व्याधि की जड़ भी, मोह में आसक्त व्यक्ति समभाव नहीं अपना पाता, अपने पराये का भाव और पक्षपात का दुर्गुण भी मोह से ही उपजता है, जहां प्रेम आपको मुक्ति देता है, शक्ति प्रदान करता है, वहीं मोह, बंधन का एवं दुर्बलता का कारण है।
गुरु ढूंढे नहीं जाते, आपके प्रारब्ध एवं वर्तमान में किये जा रहे कर्मों के फलस्वरूप उत्पन्न ऊर्जा से, स्वतः ही आप उनकी ओर आकर्षित होते हैं, और वे, भवसागर से पार उतारने को, आपकी जीवन नैया की पतवार सँभालते हैं, अतः जागृत जीवन जीने का प्रयास कीजिये, सकारात्मक ऊर्जा का स्तर बढाइये, शीघ्र ही गुरु स्वयं प्रकट हो जायेंगे।
ब्रह्म का जैसा आचरण है, वैसा ही आचरण, ब्रह्मचर्य है, परमात्मा अर्थात ब्रह्म का अनवरत चिंतन, लगातार अभ्यास के फलस्वरूप आत्मा को माया के समस्त बंधनों से परे ले जा कर, परम भाव अर्थात परमात्मा (ब्रह्म) की स्थिति प्रदान करने की क्षमता रखता है, फिर द्वैत भाव मिट कर सर्वव्यापी अक्षर ब्रह्म ही रह जाता है।
जो कार्य, दान इत्यादि प्रशंसा के उद्देश्य से किए जाते हैं, उनका फल आध्यात्मिक मार्ग में साधक के विरुद्ध ही जाता है, कुपात्र को दिया गया अथवा प्रशंसा की इच्छा से दिया गया दान, साधक को नष्ट कर देता है, साधुता से दूर ले जाता है, मिथ्या संसार की नज़र में ऊंचा दिख सकते हो, लेकिन परमात्मा से दूर हो जाते हो।
जैसे बच्चा पहले गर्दन संभालना, बैठना, चलना फिर दौड़ना सीखता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक यात्रा भी है, बच्चे को मां संभालती है, और साधक को सद्गुरु, पहले सामने से, फिर स्वयं हृदय में उतर कर, रथी बन कर।
विज्ञान का अर्थ है, विशुद्ध ज्ञान, वह ज्ञान जो परमात्मा से साक्षात्कार करा दे, और इसी ज्ञान मार्ग पर चलने वाला ही विज्ञान का छात्र कहलाने योग्य है, साइंस एक पाश्चात्य सांसारिक ज्ञान की धारा है, इसे विज्ञान कहना अनुचित है।
ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः, अर्थात्, ब्रह्म को जो जानता है, वही ब्राह्मण है।
ज्ञान किसी बहस तर्क वितर्क का विषय नहीं, जो परमात्मा को प्रत्यक्ष जानता है, वही ज्ञानी है, और यही शाश्वत जानकारी ही ज्ञान है।
गोवर्धन पर्वत की पूजा की सलाह दे कर, भगवान श्रीकृष्ण का सीधा संदेश था कि जो तुम्हारा और तुम्हारे परिवार, पशुओं का लालन पालन करता है, उसकी पूजा करो, संरक्षित रखो, अर्थात पृकृति की पूजा करो, अगर तुम प्रकृति की रक्षा अपने भगवान की तरह करोगे, तो मैं तुम्हें, स्वयं हर आपदा से बचाऊंगा, जैसे मैंने समूचे पर्वत को एक ऊँगली पर उठा कर तुम्हारा कोई अहित नहीं होने दिया था, और इंद्र का घमंड चकनाचूर किया था!! पृकृति तुम्हारी माता पिता पालनहार है, इसकी पूजा करो, सुरक्षित रखो, इसे क्षति पहुँचाना अधर्म है, और अधर्मियों का विनाश मेरा परम कर्तव्य।
भाग्य का निर्माण हमारे ही कर्म करते हैं, जो हमने पहले इस जन्म अथवा पूर्व जन्मों में किया, आज भोग रहे हैं, और जो अब कर रहे, आगे भोगना निश्चित है। इस सृष्टि के बड़े ही पारदर्शी नियमानुसार, जो हम देंगे, वापस वही मिलेगा, बबूल का बीज बोने से कांटे ही मिलेंगे, आम के फल नहीं, फिर भाग्य को कोसना कैसा ?
योग का अर्थ है जोड़ना, योग सिर्फ स्वस्थ रहने के लिये व्यायाम मात्र ही नहीं, यह प्रकृति का परम सूत्र है, आपको परम सत्ता से जोड़ने का, आपको व्यापक बनाने का सीमाओं से परे। योग और प्राणायाम के निरंतर अभ्यास द्वारा आप जीवन का यथार्थ देखने में सक्षम हो जाते हैं, अपनी शक्तियों का आभास करते हैं और समझ जाते हैं कि आपका ही परम रूप परमात्मा है, और फलस्वरूप अपना नियत कर्म जो भगवद गीता में इंगित है, उसे जान जाते हैं।
RELIGIOUS MYTHS AND FACTS
यह काल्पनिक लक्ष्मण रेखा, किसी रचयिता ने, वाल्मीकि रामायण के बहुत काल के पश्चात स्त्रियों को मर्यादा में रहने की शिक्षा देने के उद्देश्य से खींची होगी, वाल्मीकि रामायण में ऐसा कोई प्रसंग नहीं है, व्याकुल सीता जी श्रीराम की आवाज़ के रूप में राक्षस मारीच की पुकार सुन कर स्त्री सुलभ अनेक कठोर, अपमानजनक, भाई के घाती इत्यादि दुसह्य हृदय विदीर्ण करने वाले वचन कह कर श्रीराम की रक्षा हेतु जाने के लिए मजबूर करती हैं, और लक्ष्मण जी मजबूर हो कर वहां से चले जाते हैं, यह जानते हुए भी, कि यह माया राक्षसों द्वारा निर्मित है, श्रीराम सकुशल हैं, वह ऐसी कोई रेखा नहीं खींचते, जिसके उल्लंघन का आरोप सीता जी पर आज तक समाज लगाता है, कि न वो लक्ष्मण रेखा लांघतीं, और न अपहरण होता, समाज में भी स्त्रियों को यही शिक्षा दी जाती है, और लक्ष्मण रेखा को मर्यादा से जोड़ा जाता है, यह प्रसंग तो कलियुग में लिखी गई, राम चरित मानस में भी नहीं है, समाज में धर्म के नाम पर ऐसी कई भ्रांतियां हैं, जिनका निवारण आवश्यक है, और इनका निवारण इन ग्रंथों (उक्त काल से संबद्ध एवं प्रमाणिक) को पढ़ कर, समझ कर ही संभव है।
राम कथा में शबरी का प्रसंग बड़े प्रेम भाव से ब्राह्मणों द्वारा समाज के निचले वर्ग के लोगों के अपमान और फिर प्रभु श्री राम के द्वारा उसके जूठे बेर खा कर दलित के प्रति सम्मान को प्रदर्शित करता है, सदियों से यह कथा इसी रूप में प्रदर्शित की जा रही है, लेकिन क्या आप जानते हैं, कि सर्वथा प्रमाणिक, त्रेतायुगीन बाल्मिकी रामायण में यह प्रसंग नहीं है, वाल्मीकि रामायण में शबरी को मतंग मुनि की प्रिय शिष्या महान तपस्विनी कहा गया है, जिनका समस्त ऋषि मुनि बहुत सम्मान करते थे, उन्होंने श्री राम लक्ष्मण को अपने आश्रम में आने पर नैवेद्य (कंद मूल फल के रूप में यथोचित आतिथ्य सत्कार) भेंट किया, मतंग मुनि के पवित्र आश्रम के दर्शन कराए, आगे के मार्ग के बारे में जानकारी दी, एवं तत्पश्चात आज्ञा ले कर परमधाम चली गईं।
VED, PURAN, UPNISHAD GYAN & Quotes
In this section, rare knowledge is extracted from reliable sources available in Internet media also. Special Courtesy: holy-bhagwad-gita.org
"सभी लोग सुख प्राप्त करने के लिए साकाम कर्मों में संलग्न रहते हैं किन्तु फिर भी उन्हें इससे संतोष नहीं मिलता अपितु फल के प्रति आसक्त होकर कर्म करने से उनके कष्ट और अधिक बढ़ जाते हैं।" परिणामस्वरूप व्यावहारिक रूप से सभी लोग इस संसार मे दुखी है। कुछ शारीरिक और मानसिक कष्ट भोग रहे हैं। कुछ लोग अपने परिवार के सदस्यों या सगे-संबंधियों से उत्पीड़ित होते हैं और कुछ धन और जीवन यापन के लिए मूलभूत वस्तुओं के अभाव से दुखी होते हैं। भौतिक सुखों में लिप्त सांसारिक मनोवृत्ति वाले लोग जानते हैं कि वे वास्तव मे दुखी हैं किन्तु वे सोचते हैं कि जो अन्य लोग उनसे अधिक समृद्ध हैं, वे सुखी होंगे और इसलिए वे भी सांसारिक सुख सुविधाओं को बढ़ाने की दिशा की ओर निरन्तर भागने में लगे रहते हैं। यह अंधी दौड़ अनेक जन्मों तक चलती रहती है और फिर भी सुख की कोई किरण दिखाई नहीं देती। जब लोगों को यह अनुभव होता है कि साकाम कर्मों में संलग्न होने से कभी भी कोई मनुष्य सुख प्राप्त नहीं कर सकता, तब उन्हें समझ में आता है कि वे जिस दिशा की ओर भाग रहे हैं, वह निस्सार है और फिर वे आध्यात्मिक जगत की ओर मुड़ने के लिए सोचते हैं।
वे बुद्धिमान पुरुष जो आध्यात्मिक ज्ञान से दृढ़-निश्चयी हो जाते हैं और यह जान जाते हैं कि भगवान सभी पदार्थों के भोक्ता हैं। परिणामस्वरूप वे अपने कर्मों के प्रति आसक्ति के भाव को त्याग कर सब कुछ भगवान को अर्पित करते हैं और सुख-दुख आदि सभी को समान रूप से स्वीकार करते हैं। ऐसा करने से उनके कर्म उन प्रतिक्रियाओं से मुक्त हो जाते हैं जो मनुष्य को जन्म और मृत्यु के बंधन मे बांधते हैं।
"कृपण वे हैं जो यह सोचते हैं कि परम सत्य केवल भौतिक शक्ति से निर्मित इन्द्रिय विषय भोग के पदार्थों में ही है।" श्रीमद्भागवतम् में पुनः यह भी वर्णन किया गया है: “कृपणो योऽजितेन्द्रियः" (11.19.44) "कृपण वह है, जिसका इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं है।" जब कोई मनुष्य चेतना के उच्चतर स्तर की ओर अग्रसर होता है तब वह स्वभाविक रूप से कर्मों के फलों का सुख प्राप्त करने की इच्छा का त्याग कर देता है और समाज सेवा की भावना से कार्य करता है।
1. अज्ञान से तत्त्वरूप हुआ जीव ही देह में रहता है।
2. वासना अज्ञानस्वरूप मोह से उत्पन्न हुई है, और यह मोह ही बंधन में बांधता है।
3. वासना ही बंधन है, और इसका क्षय ही मोक्ष है।
4. वासना मुक्त जीव सुख दुख में वैसे ही लिप्त नहीं होता, जैसे पानी मे कमल का पत्ता।
5. समस्त ज्ञान हो सारे शास्त्रीय कर्म हों, लेकिन वासना का ज़रा भी अणु शेष रहने पर, पिंजरे में सिंह जैसी अवस्था जीव की होती है, और वह संसार के जंगल मे फंसा रहता है।
6. परमात्मा का संकल्प ही संसार है , और संकल्प का अभाव ही परम पद है, यही मोक्ष है।
7. संसार अज्ञान से उत्पन्न होता है, और तत्वज्ञान से नष्ट हो जाता है।
8. वासना को ही चित्त कहते हैं, यही संसार का कारण है।
9. मन के विनाश से ही परमपद की प्राप्ति होती है, मुनि वासना को ही मन जानते हैं।
10. इच्छा नाम की हथिनी ही जो मन के जंगल मे रहती है, इसे धैर्य नाम के सर्वश्रेष्ठ अस्त्र से मारना चाहिए, तभी मुक्ति संभव है।
11. कर्म का आरंभ काम, क्रोध और लोभ को त्यागने के बाद ही होता है।
12. सदा स्मरण रहे कि कोई देख रहा है और शास्त्र आधारित आचरण ही करे, अन्यथा दंड प्रस्तुत है।
13. दो बातें अपना कर कोई भी सन्यासी हो सकता है, किसी से द्वेष मत करो, किसी से कोई अपेक्षा मत रखो
14. अगर आप किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखते हैं, तो सारा अस्तिव आपकी सेवा के लिये समर्पित रहता है
15. समर्पण अनुभव से आता है।
16. आप गुणी हैं, कहीं जाने की ज़रूरत नहीं, ग्रहण करने वाले खुद आयेंगे।
17. संसार सागर से उद्धार तभी संभव है, जब मनुष्य अपनी वास्तविक स्थिति "स्वभाव" में स्थित हो।
18. सृष्टि स्वप्न की ही तरह भ्रम है, और निरंतर स्वप्न के भीतर स्वप्न अनुभवों पर आधारित हैं।
19. जिसने मन को विषयों में खुला छोड़ रखा है, वह दुष्ट संसार मे डूबता ही है।
20. आत्म सम्मान का अर्थ है स्वयं में ये जांचना कि तुम खुद की नज़रों में सम्मान के लायक हो।
21. किसी को दोषी मत ठहराओ, सब खुद की ज़िम्मेदारी है
22. खुद के रंग चुनों और ज़िंदगी मे रंग भरो
23. Commit in morning, wherever I go, I will create peaceful, loving and joyful environment.
24. महत्वपूर्ण ये नहीं, कि तुम्हें किसी ने क्या दिया, महत्वपूर्ण ये है कि तुमने किसी को क्या दिया
25. जिसकी दृष्टि में जगत केवल संकल्प स्वरुप है, उस पुरुष की वह अत्यंत सूक्ष्म वासना भी धीरे धीरे विलीन हो जाती है, और वह शीघ्र ही वासना शून्य हो कर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है
26. चेतन का चेतनीय विषयों की ओर उन्मुख होना ही चित्त कहलाता है, तत्व ज्ञान चर्चा से ही इसकी वासना क्रमशः शांत होती है
27. वीर्यभ्रष्ट पुरुष कभी आत्मबली नहीं हो सकता, और न ही वह स्थाई प्रभाव डाल सकता है, वीर्य रक्षण करने वाले अर्थात वीर्यवान का पतन कभी नहीं हो सकता।
28. ब्रम्हचारी पुरुष के लिये तीनों लोकों में कुछ भी असंभव , अप्राप्त नहीं।
29. उद्दीपन और प्रतिक्रिया के बीच मनुष्य के पास प्रतिक्रिया चुनने की स्वतंत्रता होती है। - होश में जीना ही जीना है।
30. अनासक्त कर्म का अर्थ, संसार में लिप्त हुए बिना कर्मफल का त्याग कर कर्म करना, जो भी फल मिले, अनासक्त भाव, प्रसाद भाव से ग्रहण करना। तात्पर्य अपने लिये नहीं औरों के लिये कर्म करो।
31. सलाह हमेशा देश, काल, पात्र देख कर दो।
32. बात जब मुँह बदलती है, तो उसका अर्थ भी बदलता है।
33. पापी को मारने के लिये उसका पाप महाबली बन जाता है।
34. धन की तीन गति होती हैं, दान, भोग और नाश
35. अंधा होने से बदतर है, दूरदृष्टि का न होना
36. आशंका, भय और संशय, विकास के रोड़े हैं
37. अतीत के गुणगान, और भविष्य की चिंता में डूबे रहने के बजाय, सदा जागृत अवस्था में रहें।
38. मुश्किल कार्य को करने का प्रयास करें, तो आपकी निष्क्रिय पड़ी मानसिक एवं शारीरिक क्षमतायें जागृत होने लगती हैं
39. सम्पूर्ण रूप से वही जीता है, जो स्वप्न को साकार करता है
40. दूरदृष्टि विहीन लोगों की संगति में हम अपनी दिव्य अस्मिता खो देते हैं
41. वास्तविक साहसी वो हैं, जिन्हें अपने दूरगामी लक्ष्य स्पष्ट दिखते हैं
42. इस संसार में पुरुषार्थ से सबको सब कुछ मिल जाता है, अगर नहीं मिलता, तो उसके पीछे सम्यक पुरुषार्थ का अभाव होता है
43. पूर्वजन्म के पुरुषार्थ (भाग्य) और इस जन्म के पुरुषार्थ (कर्म) दोनों भेड़ों की तरह आपस मे लड़ते हैं, जो बलवान होता है, वही जीत जाता है। जो भाग्य के भरोसे बैठे रहते हैं, वे कायर, दीन और मूर्ख होते हैं
44. भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाले मनुष्यों को त्याग देना चाहिये
45. Humility commands respect, and Ego demands respect
46. आपको जो भी चाहिये, वो देना शुरू कर दो, देने में लेना समाया हुआ है।
47. खुद आगे होना हो, तो दूसरों को आगे करो
48. ॐ प्रभु का नाम है, ऐसा संकल्प करो, और सांस में ढालो, तुम परमात्मा में विलीन होना शुरू हो जाओगे और फिर तुमसे वही होगा, जो परमात्मा तुमसे कराना चाहते हैं।
49. निसंदेह अनुशासन कठिन साधना है, लेकिन यह हमें अवनति और पतन की गहरी खाई में गिरने से बचाने वाली मज़बूत दीवार है।
50. हमारा शरीर कभी भी दूसरे के पैरों पर आगे नहीं बढ़ सकता, अतः आत्मनिर्भर बनें।
51. एक चींटी भी शरीर से ज्यादा बोझ ले कर आगे बढ़ती है।
52. दरिद्रता जीवन के लिये अभिशाप है, सम्पन्नता ही जीवन का सौंदर्य है।
53. आलस्य दरिद्रता लाता है, और पुरुषार्थ सम्पन्नता।
54. किसी पर आश्रित होने का अर्थ आलसी, कामचोर और गैर जिम्मेदार होना है।
55. नहीं करने वाले के लिये हर कार्य कठिन एवं असंभव होता है, और करने वाले के लिये, हर कार्य सरल एवं संभव।
56. वही ज्ञान दूसरों को दें, जिस पर आप स्वयं चलते हैं,अन्यथा आपके दिये ज्ञान का कोई मोल नहीं।
57. शक्ति को सदा लोकहित में प्रयोग करना ही राम होना है।
58. जीवन पूरी तरह यूज़ करने (जिये जाने) के लिये है, बचाने के लिये नहीं, मरी हुई चीजें ही प्रिजर्व कीजाती हैं, जीवित नहीं।
59. जो देने की इच्छा रखे, उसे देवता कहते हैं।
IHCS PUBLIC VIDEOS
Aadhunik Gita Page (Managed by Alok Sir)